रविवार, 31 मार्च 2024

शनिवार, 30 मार्च 2024

खंडित प्रतिमाएँ

अब वे सब की सब
रख दी गई हैं
एक पुराने बरगद के नीचे
यही तरीका है शायद
कि संभव नहीं हो नदी में विसर्जन
तो रख देते हैं खंडित प्रतिमाओं को
किसी पेड़ के नीचे
कभी पूजाघरों में प्रतिष्ठित
इन्हीं के सामने खड़े होते थे लोग
अपनी संपूर्ण दयनीयता, विनम्रता
और भक्तिभाव समेटे
जोड़कर कातर हाथ!
यही बचाती थीं
बच्चों को रोगों से
दिलाती थीं परीक्षाओं में नंबर 
सुधार देती थीं बिगड़ा हुआ पेपर
सुरक्षित ले आतीं थीं बच्चों के पिता को
दूसरे शहरों से
ध्यान रखती थी होस्टल में पढ़ रही बेटी का
पूरी हुई कितनी मन्नतें इन्हीं की पूजा से
अब वे उपेक्षित कर दी गई हैं
सत्ता से उतरे सत्ताधीश की भाँति
आते-जाते कुछ राहगीर
अभी-भी जोड़ देते हैं हाथ श्रद्धावश
तब क्या इन्हें भी मिलती होगी
उतनी ही खुशी
जितनी कि मिलती है
स्वयं को उपेक्षित महसूसते
वृद्ध पिता को
लंबे अरसे बाद अपने बेटे की चिट्ठी पाकर

- लक्ष्मीशंकर वाजपेयी।
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शुक्रवार, 29 मार्च 2024

एक माँ की डायरी

तुम हँसती हो
हँस उठता है मेरा सर्वांग

तुम्हारी उदासी
बढ़ा देती है मेरी बेचैनियाँ

तुम उड़ती हो
उड़ जाता है मेरा मन
आकाश की खुली बाँहों में बेफ़िक्री से

तुम टूटती हो
टूट जाता है मेरा अस्तित्व
भड़भड़ाकर

तुम प्रेम करती हो
भर जाती हूँ मैं
गमकते फूलों की क्यारियों से

तुम बनाती हो
अपनी पहचान
लगता है
मैं फिर से जानी जा रही हूँ

तुम लिखती हो कविताएँ
लगता है
सुलग उठे हैं
मेरे शब्द 
तुम्हारी क़लम की आँच में 

- अनुप्रिया।
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गुरुवार, 28 मार्च 2024

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ 
प्रिय मिलने का वचन भरो तो! 

पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ 

फूट पड़े पतझर से लाली 
तुम अरुणारे चरन धरो तो! 

रात न मेरी दूध नहाई 
प्रात न मेरा फूलों वाला 
तार-तार हो गया निमोही 
काया का रंगीन दुशाला 

जीवन सिंदूरी हो जाए 
तुम चितवन की किरन करो तो! 

सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आजूँ अँधियारी
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर 
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी 

साँसों की ज़ंजीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो!

- भारत भूषण।
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बुधवार, 27 मार्च 2024

उड़ान शेष है

कुछ ही डग भरे, अभी तो उड़ान शेष है
प्रत्यक्ष युग ने देखा, अनुमान शेष है।

जो बहा चले संग में, तुम पवन निराली
सुगंधित समीर का वह अभियान शेष है।

रवि-रश्मि बाँध पाए, नहीं ऐसी गठरी
सतरंगी इंद्रधनुष का वितान शेष है।

सो ना सकोगे तुम भी, मैं न सो सकी तो।
अभी मेरा मानदेय, अनुदान शेष है।

संकल्पों की लेखनी अब नहीं थकेगी।
बंधन जो तोड़ दिए, विधि-विधान शेष है।

- कविता भट्ट।
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मंगलवार, 26 मार्च 2024

तुम्हारी ही आमद है

यह परीक्षाओं का
ऊब और धूल भरा
मौसम हुआ करता था

उदास सुबह
थकी दोपहरी
घबराई शाम
चिंतातुर रातें
यही सब परिचित हुआ करते थे
इस मौसम के

इसकी हवाएँ
काव्यरूढ़ि भर थीं
बिना छुए
गुज़र जाया करती थी!

तुम्हारी ही आमद है
कि अब यह फागुन है

- कुमार सौरभ।
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सोमवार, 25 मार्च 2024

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।

- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'।
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विडियो हिंदी कविता से साभार।


रविवार, 24 मार्च 2024

मुखड़ा हुआ अबीर

मुखड़ा हुआ अबीर लाज से
अंकुर फूटे आस के।
जंगल में भी रंग बरसे हैं
दहके फूल पलाश के।

मादकता में डाल आम की
झुककर हुई विभोर है।
कोयल लिखती प्रेम की पाती
बाँचे मादक भोर है।

खुशबू गाती गीत प्यार के
भौंरों की गुंजार है।
सरसों ने भी ली अँगड़ाई
पोर-पोर में प्यार है।

मौसम पर मादकता छाई
किसको अपना होश है।
धरती डूबी है मस्ती में
फागुन का यह जोश है।

- रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'।
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शनिवार, 23 मार्च 2024

ताज़े गुलाब का उन्माद

मैंने गुलाब को छुआ
और उसकी पंखुड़ियाँ खिल उठीं
मैंने गुलाब को अधरों से लगाया
और उसकी कोंपलों में ऊष्मा उतर आई।

गुलाब की आँखों में वसंत था
और मेरी आँखों में उन्माद
मैंने उसे अपने पास आने का आह्वान दिया
और उसने
अपने कोमल स्पर्श से मेरी धमनियों में
स्नेह की वर्षा उड़ेल दी।

अब गुलाब मेरे रोम-रोम में है
मेरे होठों में है
मेरी बाहों में है
और उसकी रक्तिम आभा
आकाश में फैल गई है

और
बिखेर गई है मादक सुगंध 
अवयवों में
और उगते सूरज की मुस्कुराहट में।

 - जगदीश चतुर्वेदी।
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शुक्रवार, 22 मार्च 2024

तितली का सपना

तितली में बसा होता है सपना
या सपने में तितली? 

तितली में 
उड़ती है एक मासूम बच्चे की मुस्कान 
बच्चे की मुस्कान को छूकर 
चकित हर्ष के कोमल पंखों को फड़फड़ाते 
उड़ जाती नीले आसमान में तने 
इंद्रधनुष की ओर 

बिखेरते हुए प्रकृति में 
रंगों की अद्वितीय छटा।

- उद्भ्रांत।
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गुरुवार, 21 मार्च 2024

कहीं चंदन महकता है कहीं केसर महकता है

कहीं चंदन महकता है कहीं केसर महकता है
ये ख़ुशबू है बुज़ुर्गों की जो मेरा घर महकता है

वो अपनी झुर्रियों वाली हथेली में दुआ भर कर
जो छू देते हैं मेरा सर तो मेरा सर महकता है

अगरबत्ती के जैसा हो गया है दिल हमारा अब
वो अपने देवता के सामने जल कर महकता है

तुम्हारे शहर में अब तो बहारें भी हुई बासी
हमारे गाँव आ जाओ यहाँ पतझड़ महकता है

मिरे इस जिस्म की अपनी कोई ख़ुशबू नहीं लेकिन
महकता हूँ मैं इस कारन मिरा दिलबर महकता है

सड़क पर ठोकरें दुनिया की वो खाता रहा बरसों
उसे मंदिर में जब रक्खा वही पत्थर महकता है

तिरा भीगा बदन इक दिन नज़र से छू लिया मैं ने
उसी दिन से मिरी आँखों का हर मंज़र महकता है

- चंद्र शेखर वर्मा।
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बुधवार, 20 मार्च 2024

एक दिन

सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर-उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराए 
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह-जगह फैलाए
शाम
थकी हारी माँ जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे-धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाए।

 - निदा फ़ाज़ली।
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मंगलवार, 19 मार्च 2024

हँसी का रंग हरा होता है

हँसी का रंग हरा होता है 
जहाँ-जहाँ भी हरापन है 
तेरे ही खिलखिलाने की अनुगूँज है वहाँ-वहाँ 

कल्पना का रंग होता है आसमानी 
जहाँ तक पसरा हुआ है आसमान 
तेरी कल्पनाओं के दायरे में आता है... 

ज़िद का रंग होता है बहुत गहरा 
इतना कि एक बार जिस चीज़ की रट लगा लेती है तू 
हमारी किसी भी समझाइश का रंग 
चढ़ता ही नहीं उस पर 

और रोने का रंग...? 
वह तो किसी रंग जैसा 
होता ही नहीं 
क्योंकि जब रोती है तू 
रंगों के चेहरे पड़ जाते हैं फीके 

रंग जो हमेशा 
भरपूर चटखीलेपन में 
जीना चाहते हैं 
चाहते हैं पृथ्वी भर हरापन 

क्योंकि तेरी हँसी का रंग 
हरा होता है।

- हेमंत देवलेकर।
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सोमवार, 18 मार्च 2024

मित्र राग में सोचते हुए

वे बेशक सजा लें अपने तोपख़ाने 
और हमारी ज़िंदगी को 
अपनी मर्ज़ी का ग़ुलाम बना लें 
मुझे यक़ीन है 
कि दोस्त साथ होंगे अगर 
तो मैं पृथ्वी को 
नष्ट होने से अंततः बचा लूँगा
दुनिया की बेशतर आबादी 
फ़िलहाल जबकि 
ज़िंदा बची रहने के लिए 
बंकरों की मोहताज है 
मैं दोस्तों के 
पुराने ख़त पढ़ता हुआ 
किसी भी मौसम में बेख़ौफ़ घूमता हूँ 
इस दौर का 
सबसे क्रूर खलपुरुष 
सरेबाज़ार मुस्कुराता हुआ घूमता है 
सिर्फ़ इसलिए 
क्योंकि न्यायाधीश उसका मित्र है 
दोस्त हमारी सभ्यता के 
सबसे पुराने प्रतीक चिह्न हैं 
और दोस्ती आत्मनिर्वासन के दिनों में 
हमारी सबसे महफूज़ पनाहगाह 
इस धरती पर सिर्फ़ दोस्त ही होते हैं 
जो हमें प्रेम करने से नहीं रोकते 
आप चाहें न मानें लेकिन बरसों-बरस 
ज़िंदगी के बेहद ख़िलाफ़ दिन 
सिर्फ़ दोस्ती गुनगुनाते हुए तय किए हैं मैंने 
और अक्सर यह सोचा है 
दोस्त न होंगे अगर तो कैसे बचेगी पृथ्वी!

- प्रभात मिलिंद।
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