मंगलवार, 8 अगस्त 2023

बात सीधी थी पर

बात सीधी थी पर एक बार

भाषा के चक्कर में
ज़रा टेढ़ी फँस गई।

उसे पाने की कोशिश में
भाषा को उलटा पलटा
तोड़ा मरोड़ा
घुमाया फिराया
कि बात या तो बने
या फिर भाषा से बाहर आए-

लेकिन इससे भाषा के साथ-साथ
बात और भी पेचीदा होती चली गई।

सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
मैं पेंच को खोलने के बजाय
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
क्योंकि इस करतब पर मुझे
साफ़ सुनाई दे रही थी
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह!

आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था -
ज़ोर ज़बरदस्ती से
बात की चूड़ी मर गई
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी।

हारकर मैंने उसे कील की तरह
उसी जगह ठोंक दिया।

ऊपर से ठीक-ठाक
पर अंदर से
न तो उसमें कसाव था
न ताक़त।

बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
मुझसे खेल रही थी,
मुझे पसीना पोंछती देखकर पूछा -
“क्या तुमने भाषा को
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा?”

- कुँवर नारायण।

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अनूप भार्गव की पसंद।

3 टिप्‍पणियां:

  1. कविता में कथ्य महत्वपूर्ण है या कथन भंगिमा ?
    कविता इसे सादगी से धीरे धीरे खोलती है.
    कभी सीधी सरल बात भाषा के उलझाव में फंस कर दम तोड देती है.
    कुंवर नारायण इसके खिलाफ हैं .

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  2. बहुत सार्थक चयन!
    भाषा के साथ हुए ऐसे ही खिलवाड़ ने उसे बहुत हद तक अर्थहीन बना दिया है। सवाल वही है कि हम कभी किसी भाषा को सलीके से बरतना सीख पाएं!

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  3. सादगी से बहुत सार गर्भित बात कविता से कह दी। प्रेरणास्पद...कथ्य । सरल सीधी भाषा में गहरी बात कहने में माहिर कुँवर जी को नमन।

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