मंगलवार, 21 मई 2024

पहला और आख़िरी

वह पहली घड़ी थी
जब मैंने पूछा था -
तुम कौन हो?

और मेरा सवाल
गूँजते हुए
जवाब बन गया -

मैं तुम हूँ!

बाक़ी ज़िंदगी गुज़र गई
तुम और मैं के इस खेल में।

- उज्ज्वल भट्टाचार्य
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 20 मई 2024

चाँदनी

जब से सँभाला होश मेरी काव्य चेतना ने
मेरी कल्पना में आती-जाती रही चाँदनी।

आधी-आधी रात मेरी आँख से चुरा के नींद
खेत खलिहान में बुलाती रही चाँदनी।

सुख में तो सभी मीत होते किंतु दुख में भी
मेरे साथ-साथ गीत गाती रही चाँदनी।

जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा
और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी।

- उदयप्रताप सिंह
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हरप्रीत सिंह पुरी की सौजन्य से 

रविवार, 19 मई 2024

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।1।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।2।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।3।

- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 18 मई 2024

प्रेम

तुम
इस बात से
अनजान थीं
और मैंने भी तुम्हें
कुछ नहीं बताया था
तुम रोती रहीं
और हाथ हिलाती रहीं
मैं तुमसे
प्रेम करते हुए
लौट आया था

- अनिल जनविजय
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 17 मई 2024

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
धूप भी चाँदनी-सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे

प्यार की ये नज़र रहे, न रहे
कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख

- अली सरदार जाफ़री

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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 16 मई 2024

भीड़

मैं सड़क की भीड़ में
एक समूचा
आदमी
न खोज पाई
एक-एक टुकड़ा बीनती रही
फिर भी न जोड़ पाई
पता ही नहीं चला
भीड़ में से आदमी
कब खो गया?

बिखर गया, खिसक गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह
और मुझे बरसों हो गए हैं
मैं उसे खोज रही हूँ
कभी नितांत अकेले में
कभी भीड़ में
और हो जाती हूँ
पराजित
क्योंकि आदमी
आदमी की भीड़ में है ही नहीं
 
- निर्मला सिंह
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 15 मई 2024

होश में आने से पहले

दर्द,

उत्पीड़न,

ग़रीबी,

जैसे शब्द नही है उनके शब्दकोश में

ये सब महलों के बाशिन्दे हैं

फिर भी कभी–कभी

कर लेते हैं बात इन मुद्दों पर

भावावेश में हम भी आ जाते हैं

और हार जाती है

हिम्मत हमारी हर बार

वे खेलते हैं

हमारी मूर्छित चेतना से

फिर होश में आने से पहले

बदल जाती है उनकी दुनिया

हम रह जाते अवाक..

हमारे कण्ठ से

नही फूट पाता विद्रोह का एक भी स्वर

ऐसा क्यों ....?


-नित्यानंद गायेन
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 14 मई 2024

उर्वर प्रदेश

मैं जब लौटा तो देखा 
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने 
फेंके हैं अंकुर। 

दो दिनों के बाद लौटा हूँ वापस 
अजीब गंध है घर में 
किताबों, कपड़ों और निर्जन हवा की 
फेंटी हुई गंध 

पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त 
और जकड़ा है जग में बासी जल 
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान 
मेरे साथ 
तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा 
सहता जल का समस्त कोलाहल— 
सूख गए हैं नीम के दातौन 

और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर 
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को 
पोसते रहे हैं ये अंकुर 

खोलता हूँ खिड़की 
और चारों ओर से दौड़ती है हवा 
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के 
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती 
मुझसे बाहर मुझसे अनजान 

बदल रहा है संसार 
आज मैं लौटा हूँ अपने घर 

दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर 
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर-प्रदेश 
सामने है पोखर अपनी छाती पर 
जलकुंभियों का घना संसार भरे।
 
- अरुण कमल
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 13 मई 2024

मुझे तुमसे प्रेम है

मैं जीतता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं पराजित होता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं शब्दों में रचता हूँ तुम्हें
शब्दों से छूता हूँ
शब्दों में भोगता हूँ

मैं चाहता हूँ हर शब्द तुम्हारे लिए हो —

ये अग्निशिखर हैं,
ऊँची उठती मीनारें हैं,
न लौटे हुए समुद्र में भटकते जहाज़ हैं,
क़िले में दफ़्न एक ख़ामोश मक़बरा है,

पहाड़ी ढलान से उतरती बारिश है,
गिरती बिजलियों में दमकता तुम्हारा सुर्ख़ चेहरा,
छाती पर उभरा रात का सूरज,
खोई कल्पनाओं की बंद सीपियाँ

ये फ़र्श, छायाएँ और आलोड़न
कुर्सियाँ, किताबें और परदे
खिड़कियाँ, तस्वीरें और जालियाँ
लकड़ी, शहद और इत्र

सब तुम्हारे लिए
हाँ, सब तुम्हारे लिए
मैं इनमें धँसता हूँ
चीन्हता हूँ अपने विजेता शब्द

मैं रीतता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है।

- नीलोत्पल
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संपादकीय चयन 

रविवार, 12 मई 2024

होटल

एक

सब कुछ यही रहता।

ऐसी ही थाली
ऐसी ही कटोरी, ऐसा ही गिलास
ऐसी ही रोटी और ऐसा ही पानी;

बस थाली के एक तरफ़
माँ ने रख दी होती एक सुडौल हरी मिर्च
और थोड़ा-सा नमक।

 दो 

जैसे ही कौर उठाया
हाथ रुक गया।

सामने किवाड़ से लगकर 
रो रहा था वह लड़का
जिसने मेरे सामने
रक्खी थी थाली।

- अरुण कमल
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शनिवार, 11 मई 2024

निशानी

अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा 
मुझ को तस्वीर भी देगा तो पुरानी देगा 

छोड़ जाएगा मिरे जिस्म में बिखरा के मुझे 
वक़्त-ए-रुख़्सत भी वो इक शाम सुहानी देगा
 
उम्र भर मैं कोई जादू की छड़ी ढूँढूगीं 
मेरी हर रात को परियों की कहानी देगा 

हम-सफ़र मील का पत्थर नज़र आएगा कोई 
फ़ासला फिर मुझे उस शख़्स का सानी देगा 

मेरे माथे की लकीरों में इज़ाफ़ा कर के 
वो भी माज़ी की तरह अपनी निशानी देगा
 
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त 
कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा
 
- अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
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अनूप भार्गव के सौजन्य से 

शुक्रवार, 10 मई 2024

होना होगा

आँसू को आग
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को मनुष्य होना होगा
ख़ारिज एक शब्द नहीं हथौड़ा है
मादा की जगह लिखना होगा
सृष्टि, मोहब्बत,
जीने की कला
शीशे की नोक पर जिजीविषा
मनुष्य
लिखना नहीं
मनुष्य होना होगा।

- अर्चना लार्क।
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 9 मई 2024

सिलसिला

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआए हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाए 
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा
यह सही है कि नारों को
नई शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे।

- सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'
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  संपादकीय चयन 

बुधवार, 8 मई 2024

मेरे देश की आँखें

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...
 
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...
 
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...
 
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...

- अज्ञेय।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 7 मई 2024

करुणा का पाठ

माँ, मुझे करुणा का अर्थ नहीं आता
बार-बार पूछता हूँ टीचर ‘सर’ से
वे झुँझला कर बताते हैं बहुत से अर्थ
उलझे-उलझे
लेकिन कितना छूट जाता है पीछे
 
मैं कहता हूँ रहने दें सर
माँ से पूछ लूँगा
वे हँसते हैं
 
जब अँधेरा टूटने को होता है
कुछ रोशनी में तुम्हारा प्रसन्न मुख देखता हूँ
तभी करुणा के सारे अर्थ
मेरी समझ में आ जाते है
सीधे सरल अर्थ
आशा रहित दिनों में
तुम कठिन शब्दों का अर्थ समझाती हो
किस कक्षा तक
पता नहीं माँ 
तुम किस स्कूल में पढ़ी हो?
 
- नंद चतुर्वेदी।
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अनूप भार्गव के सौजन्य से

सोमवार, 6 मई 2024

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा 
अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा 

ये एक मेला है वा'दा किसी से क्या लेगा 
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा 

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा 
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा 

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए 
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा 

मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे 
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा 

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम' 
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

- वसीम बरेलवी।
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विजय नगरकर के सौजन्य से 

रविवार, 5 मई 2024

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?

आँधी आई जोर शोर से,
डालें टूटी हैं झकोर से।
उड़ा घोंसला अंडे फूटे,
किससे दुख की बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?

हमने खोला आलमारी को,
बुला रहे हैं बेचारी को।
पर वो चीं-चीं कर्राती है
घर में तो वो नहीं रहेगी!

घर में पेड़ कहाँ से लाएँ,
कैसे यह घोंसला बनाएँ!
कैसे फूटे अंडे जोड़े,
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
 
- महादेवी वर्मा।
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 4 मई 2024

कमरे में धूप

हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगड़कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया!
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठकर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

- कुँवर नारायण।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 3 मई 2024

अंदर ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं

अंदर ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं
काग़ज़ के साहिल पे कहाँ उतरती हैं

माज़ी की शाखों से लम्हें बरसते हैं
ज़हन के अंदर तेज़ हवाएँ चलती हैं

आँखों को बादल बारिश से क्या लेना
ये गलियाँ अपने पानी से भरती हैं

बाढ़ में बह जाती हैं दिल की दीवारें
तब आँखों से इक दो बूंदें झरती हैं

अंदर तो दीवान सा इक छप जाता है
काग़ज़ पर एहसान दो बूंदें करती हैं

रुकी-रुकी रहती हैं आँखों में बूंदें
रुखसारों पर आके कहाँ ठहरती हैं

तेरे तसव्वुर से जब शे'र निकलते हैं
इक-दो परियाँ आगे-पीछे रहती हैं

- सतीश बेदाग़।
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 2 मई 2024

नीरज के दोहे

दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन  

जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए

ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास 

दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप  

तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल  

पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय 

हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व

स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास

- गोपालदास नीरज।
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 1 मई 2024

किताबें

किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।

----किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!

- सफ़दर हाशमी।
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अनूप भार्गव की पसंद