एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।1।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।2।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।3।
- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बहुत सुंदर
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