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बुधवार, 10 सितंबर 2025

ज़िंदगी को जिया मैंने

ज़िंदगी को जिया मैंने 
इतना चौकस होकर 
जैसे नींद में भी रहती है सजग 
एक चढ़ती उम्र की लड़की 
कि उसके पैरों से कहीं चादर न उघड जाए

- अलका सिन्हा
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 9 सितंबर 2025

फूल-सा बिखरना

जैसे फूल बिखेरता है 
अपनी पँखुड़ियाँ धरती पर 
बिखेरता हूँ मैं 
तुम पर अपने को 
ठीक वैसे ही 

फिर समेट नहीं पाता हूँ अपने को ही 
जैसे समेट नहीं पाता फूल 
अपनी बिखरी पँखुड़ियाँ 
और फिर 
फूल नहीं रह पाता है फूल 

- आनंद हर्षुल 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 8 सितंबर 2025

दोस्त

जिन्हें
कहती है दुनिया दोस्त
चुटकियों में नहीं बनते

पहचाने जा सकते हैं
चुटकियों में

पड़ जाते है जो
एक ही आँच में लाल
दुनिया उन्हें
दोस्त नहीं मानती

दोस्ती
धीरे-धीरे तपती है
और
तपती ही जाती है
फिर पकती है कहीं
करोड़ों पलों के
मौन से गुज़रकर

मैं भी धीरे-धीरे
पकना चाहता हूँ।

- अनिल करमेले
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 7 सितंबर 2025

ब्याहताएँ

देहरी लीपकर मांड आई हूँ मांडना
ताकि बनी रहे संसबरक्कत घर में 
चुन पछोरकर 
अनाज भर दिया है कोठी में 
कि मेरी अनुपस्थिति में भी 
कुछ रोज़ ज्योनार बन सके आसानी से

देखो न बाबा
भोर से संध्या हो गई है 
लेस दिया है लालटेन और 
लटका आई हूँ बूढ़े बरगद की डालियों पर 
ताकी अँधेरे में वो खूसट 
अपनी जटाओं से डराए नहीं 
राहगीरों को 

चलो न बाबा 
निपटा आई हूँ सारे काम 
अब ले चलो न अपने घर 
गोधूलि से पहले ही 
क्योंकि 
ब्याहताएँ अँधेरे में विदा नहीं होती 

- अपराजिता अनामिका 
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विजया सती की पसंद 

शनिवार, 6 सितंबर 2025

सुंदर

जो सुंदर था 
गतिमान भी था वही
पकड़ा न गया

पकड़ा गया मैं 
जकड़ा गया

- वीरेन डंगवाल 
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विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

सौ-सौ सूरज

रात के
गहन अँधेरे में
सूरज
अपना वादा
तोड़कर
चाँद को
यूँ अकेला
छोड़कर
चल दिया

नज़र के
आसमान से दूर
देखता रहा
चाँद
उसके मिटते
निशान को
हर पल
मद्धम हो रहे
उसके प्रकाश को

उसके हर
क़दम के साथ
उसने
एक उम्मीद बाँधी
अपने प्रेम की
बेड़ी के साथ
उसके
क़दमों के नीचे
सपनों की नींव डाली

वो कदम
तो नहीं लौटे
जो उस रात
नहीं रूके थे
लेकिन
सपनों के बीजों से
एक घना पेड़
उग आया
जिस पर
एक नहीं
सौ-सौ सूरज उगे थे

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 4 सितंबर 2025

मेरी भाषा

मेरी भाषा
कक्षा में पढ़ाई जाने वाली कोई भाषा नहीं थी
वो न तो हिंदी थी
न अँग्रेज़ी
न संस्कृत की तरह अभिजात
न उर्दू जितनी चाशनी लिपटी हुई

वो भाषा थी मेरी माँ के झुँझलाने की
पानी गिरा हो और उसने कहा हो कि
“ध्यान कहाँ है तेरा?”
वो भाषा थी पिता की खामोशी की
जिसमें तंबाकू की गंध
और थकान की चुप्पी लिपटी रहती थी

मेरी भाषा वह थी
जिसमें दादी ने पहली बार मुझे डाँटा था 
“तू फिर खेल में लगी है!”
और फिर उसी में
थाली खिसकाकर चुपचाप खाना परोस दिया था

जिसमें मेरी बहन ने पहला झूठ बोला
'ठीक हूँ'
और फिर बहुत देर तक रोती रही

मेरी भाषा की कोई लिपि नहीं थी
वो आँखों की कोर से फिसलती रही
रसोई के चूल्हे से उठती रही
छत पर सूखते कपड़ों के बीच फड़फड़ाती रही

जब मैंने किताबों में भाषा पढ़ी
तो जाना
मेरी भाषा को अपशब्द कहते हैं
मेरे मुहावरे अशिष्ट हैं
मेरी बोली गँवारू है

तब मैं चुप हो गई 
शब्दों को रुई की तरह दबाकर रखने लगी
कि कहीं कोई सुन न ले
मेरी असल भाषा

लेकिन जब मैंने पहली बार प्यार किया
तो वो भी मेरी भाषा में हुआ
जिसमें ‘हाँ’ कहना
‘जा’ कहने जितना तीखा था
और 'रुक' कहना
मिट्टी जैसी कोमलता लिए होता था

अब मैं अपनी भाषा में लिखती हूँ 
बिना किसी व्याकरण
बिना किसी अनुवाद के
जिसे जो समझना है समझे

मेरी भाषा
मेरे जैसी है 
थोड़ी टूटी
थोड़ी रूखी
पर पूरी तरह सच्ची।

- मालिनी गौतम
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 3 सितंबर 2025

जिनकी भाषा में विष था

जिनकी भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

दुखों के पीछे अपेक्षाएँ थीं
अपेक्षाओं में दौड़ थी
दौड़ने में थकान थी
थकान से हताशा थी
हताशा में भाषा थी

भाषा में विष था
उनके भीतर कितना दुख था

- बाबुषा कोहली 
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अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 2 सितंबर 2025

बहनें

जब बाप गरज रहे होते हैं 
बाप जैसे 

माँ रो रही होती है 
माँ जैसी 

भाई खड़े रहते हैं 
भाई जैसे 

तब 
कुछ भाई
कुछ माँ 
कुछ बाप जैसी 
प्रार्थना में 
झुकी रहती हैं 
बहनें 

- विनोद कुमार श्रीवास्तव 
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विजया सती की पसंद 

सोमवार, 1 सितंबर 2025

कविता के अरण्य में

यदि तुम देख सको
कविता में उगता है एक पेड़
उस पर बैठती है एक नन्हीं चिड़िया
यदि तुम सुन सको
यहाँ बहती है एक नदी
अपने ही दुखों से सिहरती

कविता के अरण्य में 
कवि बहुत हैं
मनुष्य तुम्हें खोजने होंगे।

- रश्मि भारद्वाज 
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विजया सती की पसंद 

रविवार, 31 अगस्त 2025

वसंत

वसंत के दिन थे
जब हम पहली बार मिले

पहली बार
मैंने वसंत देखा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शनिवार, 30 अगस्त 2025

उम्मीद की अँगीठी

कविता
ज़िंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अँगीठी है

अँगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए

प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का

एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाए
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ

ज़िंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जाएगा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

मौलिकता

सृजन और प्‍यार और मुक्ति की
गतिकी के कुछ आम नियम होते हैं
लेकिन हर सर्जक
अपने ढंग से रचता है,

हर प्रेमी
अपने ढंग से प्‍यार करता है

और हर देश
अपनी मुक्ति का रास्‍ता
अपने ढंग से चुनता है।

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 28 अगस्त 2025

कुछ पल

कुछ पल
साथ चले भी कोई
तो क्या होता है
क़दम-दर-क़दम
रास्ता तो
अपने क़दमों से
तय होता है

कुछ क़दम संग
चलने से फिर
न कोई अपना
न पराया होता
बस, केवल
वे पल जीवंत 
और
सफ़र सुहाना होता है

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

बुधवार, 27 अगस्त 2025

बाहर-भीतर : यह जीवन

मैंने फूल देखे
फिर उन्हीं फूलों को
अपने भीतर खिलते देखा
 
मैंने पेड़ देखे
और उन्हीं पेड़ों के हरेपन को
अपने भीतर उमगते देखा
 
मैं नदी में उतरा
अब नदी भी बहने लगी
मेरे भीतर
 
मैंने चिड़िया को गाते सुना
गीत अब मेरे भीतर उठ रहे थे

यूँ बाहर जो मैं जीया
उसने भीतर
कितना भर दिया!

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

बेहतर है

मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश
के हाथों मारा जाना!

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

सोमवार, 25 अगस्त 2025

हँसी

बहुत कुछ कहती है
भरोसा जगाती हँसी
 
एक बेपरवाह हँसी गढ़ती है
सुंदरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान

अर्थ खो देंगे
रंग, फूल, तितली और चिड़िया
एक हँसी न हो तो
 
हँसी से ही
संबंधों में रहती है गर्मी
 
नींद कैसे आएगी हँसी के बिना
प्रेम का क्या होगा?
 
हँसी को तकिया बनाकर
सोता है प्रेम

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

पोस्ट ऑफिस

 पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के 


चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है 

‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा 

‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे 

मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया 


वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक 

और डाकिया जादूगर 

वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते 

और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें 

बीते दिनों इतना रोमांच काफी था 

कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-

‘सुन..कल वो फिर दिखा था’

पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते 


पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड 

और भी सौ काम थे 

राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ 

एक से पेट भरता दूसरे से मन 

वो दिन जब डाकघर जाना हो तो 

लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती 


पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था 

जो एकदम सही पते पर पहुँचती 

कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते


इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं 

अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है


- श्रुति कुशवाहा

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-संपादकीय चयन 

गुरुवार, 31 जुलाई 2025

गज़ल

वो रंजिश में नहीं अब प्यार में है
मेरा दुश्मन नए किरदार में है

खुशी के साथ ग्लोबल आपदाएँ
भई खतरा तो हर व्यापार में है

नहीं समझेगा कोई दर्द तेरा
तड़पना, टूटना बेकार में है

कोई उम्मीद हो जिसमें, खबर वो 
बताओ क्या किसी अखबार में है

घरों में आज सूनापन है केवल 
यहाँ रौनक तो बस बाज़ार में है

- विनय मिश्र

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संपादकीय चयन 

बुधवार, 30 जुलाई 2025

शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज सजाए जाते हैं


यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी

फूल की तरह खिलते हैं

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं, 

शहर के मेरे दोस्त

ये बेमौसम के फूल हैं

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती

अपने जुड़े के लिए गजरे

मेरी माँ नहीं बना सकती

मेरे लिए सुकटी या दाल

हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता

यहाँ खुले स्कूल

बारहखड़ी की जगह

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है


कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा

उससे पहले नदी गई

अब खबरल फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें

तो उनका ख़याल ज़रूर रखना

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में

मैंने नमी देखी थी

और हाँ

उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता

मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


- अनुज लुगुन

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-संपादकीय चयन