बुधवार, 10 सितंबर 2025
ज़िंदगी को जिया मैंने
मंगलवार, 9 सितंबर 2025
फूल-सा बिखरना
सोमवार, 8 सितंबर 2025
दोस्त
रविवार, 7 सितंबर 2025
ब्याहताएँ
शनिवार, 6 सितंबर 2025
सुंदर
शुक्रवार, 5 सितंबर 2025
सौ-सौ सूरज
गुरुवार, 4 सितंबर 2025
मेरी भाषा
बुधवार, 3 सितंबर 2025
जिनकी भाषा में विष था
मंगलवार, 2 सितंबर 2025
बहनें
सोमवार, 1 सितंबर 2025
कविता के अरण्य में
रविवार, 31 अगस्त 2025
वसंत
शनिवार, 30 अगस्त 2025
उम्मीद की अँगीठी
शुक्रवार, 29 अगस्त 2025
मौलिकता
गुरुवार, 28 अगस्त 2025
कुछ पल
बुधवार, 27 अगस्त 2025
बाहर-भीतर : यह जीवन
मंगलवार, 26 अगस्त 2025
बेहतर है
सोमवार, 25 अगस्त 2025
हँसी
शुक्रवार, 1 अगस्त 2025
पोस्ट ऑफिस
पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के
चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है
‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा
‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे
मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया
वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक
और डाकिया जादूगर
वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते
और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें
बीते दिनों इतना रोमांच काफी था
कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-
‘सुन..कल वो फिर दिखा था’
पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते
पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड
और भी सौ काम थे
राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ
एक से पेट भरता दूसरे से मन
वो दिन जब डाकघर जाना हो तो
लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती
पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था
जो एकदम सही पते पर पहुँचती
कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते
इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं
अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है
गुरुवार, 31 जुलाई 2025
गज़ल
बुधवार, 30 जुलाई 2025
शहर के दोस्त के नाम पत्र
हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं
बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं
अभ्रक और कोयला तो
थोक और खुदरा दोनों भावों से
मंडियों में रोज सजाए जाते हैं
यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी
फूल की तरह खिलते हैं
इन्हें बेचने के लिए
सैनिकों के स्कूल खुले हैं,
शहर के मेरे दोस्त
ये बेमौसम के फूल हैं
इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती
अपने जुड़े के लिए गजरे
मेरी माँ नहीं बना सकती
मेरे लिए सुकटी या दाल
हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता
यहाँ खुले स्कूल
बारहखड़ी की जगह
बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं
बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है
मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता
यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है
कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा
उससे पहले नदी गई
अब खबरल फैल रही है कि
मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है
शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें
तो उनका ख़याल ज़रूर रखना
यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में
मैंने नमी देखी थी
और हाँ
उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता
मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए
अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।
- अनुज लुगुन
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-संपादकीय चयन
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