कक्षा में पढ़ाई जाने वाली कोई भाषा नहीं थी
वो न तो हिंदी थी
न अँग्रेज़ी
न संस्कृत की तरह अभिजात
न उर्दू जितनी चाशनी लिपटी हुई
वो भाषा थी मेरी माँ के झुँझलाने की
पानी गिरा हो और उसने कहा हो कि
“ध्यान कहाँ है तेरा?”
वो भाषा थी पिता की खामोशी की
जिसमें तंबाकू की गंध
और थकान की चुप्पी लिपटी रहती थी
मेरी भाषा वह थी
जिसमें दादी ने पहली बार मुझे डाँटा था
“तू फिर खेल में लगी है!”
और फिर उसी में
थाली खिसकाकर चुपचाप खाना परोस दिया था
जिसमें मेरी बहन ने पहला झूठ बोला
'ठीक हूँ'
और फिर बहुत देर तक रोती रही
मेरी भाषा की कोई लिपि नहीं थी
वो आँखों की कोर से फिसलती रही
रसोई के चूल्हे से उठती रही
छत पर सूखते कपड़ों के बीच फड़फड़ाती रही
जब मैंने किताबों में भाषा पढ़ी
तो जाना
मेरी भाषा को अपशब्द कहते हैं
मेरे मुहावरे अशिष्ट हैं
मेरी बोली गँवारू है
तब मैं चुप हो गई
शब्दों को रुई की तरह दबाकर रखने लगी
कि कहीं कोई सुन न ले
मेरी असल भाषा
लेकिन जब मैंने पहली बार प्यार किया
तो वो भी मेरी भाषा में हुआ
जिसमें ‘हाँ’ कहना
‘जा’ कहने जितना तीखा था
और 'रुक' कहना
मिट्टी जैसी कोमलता लिए होता था
अब मैं अपनी भाषा में लिखती हूँ
बिना किसी व्याकरण
बिना किसी अनुवाद के
जिसे जो समझना है समझे
मेरी भाषा
मेरे जैसी है
थोड़ी टूटी
थोड़ी रूखी
पर पूरी तरह सच्ची।
- मालिनी गौतम
------------------
विजया सती की पसंद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें