इस हाथ से
उस हाथ के लिए कविता
जिसे थामना था
इस शहर के
कोलाहल के ठीक बीचोबीच
मगर इस बार भी उदास ही
चला गया वसंत
बादलों ने घेर लिया
तुम्हारी आँखों में
चमकते सूरज और चाँद को
काश थोड़ी भी शर्म होती
इन ज़ुल्फ़ों में
होंठों पर तैरती नदी
आज उदास थी
तुम्हारे चेहरे के आब में
डूबता रहा वर्ष भर
कि पँखुड़ियाँ थोड़ी और नम हो जातीं
सूख गए कुएँ, तालाब भी सूख गया
सूख रही नदी, सूख चुकी ख़रीफ़
और अब रबी भी उसी राह पर
चाहे कितना भी ओढ़ लो नक़ाब
भीतर का सूखा आख़िर बाहर कब तक हरा रहेगा
खोजते रहो पृथ्वी के बाहर भी
पानी और पहाड़
जीवन को बचाने के लिए कुछ और चाहिए
अपने मस्तक पर ढोती तोपों से
चूल्हे की आग नहीं बचाई जा सकती।
- रविशंकर उपाध्याय
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