गुरुवार, 30 नवंबर 2023

एक कम है

अब एक कम है तो एक की आवाज कम है
एक का अस्तित्व एक का प्रकाश
एक का विरोध
एक का उठा हुआ हाथ कम है
उसके मौसमों के वसंत कम हैं
एक रंग के कम होने से
अधूरी रह जाती है एक तस्वीर
एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश
एक फूल के कम होने से फैलता है उजाड़ सपनों के बागीचे में
एक के कम होने से कई चीजों पर फर्क पड़ता है एक साथ
उसके होने से हो सकने वाली हज़ार बातें
यकायक हो जाती हैं कम
और जो चीज़ें पहले से ही कम हों
हादसा है उनमें से एक का भी कम हो जाना

मैं इस एक के लिए
मैं इस एक के विश्वास से
लड़ता हूँ हज़ारों से
खुश रह सकता हूँ कठिन दुखों के बीच भी
मैं इस एक की परवाह करता हूँ।

- कुमार अंबुज।
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विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 29 नवंबर 2023

बचा रहे

बचा रहे सुबह का सुकून
शाम की उदासी
रातों की नींद

नींद में मुलायम सपने
होंठों पे मुस्कान
आँखों में ज़रा-सी नमी
और हवा में प्रेम 

युद्ध और आतंक से गंधाती
इस दुनिया में
बचा रहे कोई तो एक कोना
जहाँ दो पल साँस ले सकें
प्यार करने वाले लोग।

- ध्रुव गुप्त।
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विजया सती के सौजन्य से 

मंगलवार, 28 नवंबर 2023

दुख की जड़ में था प्रेम

जो पा लिया, वह नहीं 
जो पा न सके, वह दुख था 

जो कह दिया, वह नहीं 
अनकहा जो रह गया, वह दुख था 

जो जी लिया, वह नहीं 
जो बाक़ी रहा अनजिया, वह दुख था 

दुख की जड़ में था प्रेम 

जब भी दुख ने घेरा, प्रेम में घेरा 
जब भी दुख ने रौंदा, हम प्रेम में थे 

प्रेम हमारे लिए था 
प्रथम और अंतिम शरणस्थल

न हम प्रेम छोड़ सकते थे 
न हम छोड़ सकते थे दुख

- कुंदन सिद्धार्थ।
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विजया सती के सौजन्य से 

सोमवार, 27 नवंबर 2023

जंगल

एक जंगल सागौन का है
एक जंगल सागौन की गंध का है
दोनों के मध्य खड़ी हूँ मैं देर से 

गिरे हुए पत्तों की चरमर की ध्वनि के पीछे चल पड़ी हूँ अकस्मात
एक नन्हीं चीतल पानी पीकर नीचे उतर रही है 
उसी के कदम ताल करती जंगल में धीमे-धीमे शाम भी उतर रही है। 

जंगल छाँव रंगी होता जा रहा है
मन के भीतर का रंग भी बदल रहा है 
उस रंग का कोई नाम नहीं है 
यह बात मुझे सुंदरता के हक में ही लगती है कि 
कुछ चीज़ों का नाम अब तक रखा नहीं जा सका है।

याद नहीं,
कितनी देर हुई जब अचानक ठिठक कर खड़ी हो गई थी
बस इतना स्मरण है कि एक लहटौरा की आँखों के काजल से साँझ अपना रंग ले रही थी
और मैं वहीं रुक गई थी

सागवान का जालीदार विशाल पत्ता हिला है एक मधुर आवाज़ के साथ
मैं फिर चल पड़ी हूँ मंत्रबिद्ध उसी दिशा में
अब के बरामद हुआ पूरे से ज़रा कम चाँद पेड़ के पीछे

जंगल का जादू शुरू हो रहा है, 
अब जाने कितनी देर ठिठकी रहूँगी मैं।

- पल्लवी त्रिवेदी।
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ऋचा जैन की पसंद 

रविवार, 26 नवंबर 2023

ये खेल क्या है?

मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है 
और अब 
मेरी चाल के इंतज़ार में है 
मगर मैं कब से 
सफ़ेद ख़ानों 
सियाह ख़ानों में रक्खे 
काले-सफ़ेद मोहरों को देखता हूँ 
मैं सोचता हूँ 
ये मोहरे क्या हैं

अगर मैं समझूँ 
कि ये जो मोहरे हैं 
सिर्फ लकड़ी के हैं खिलौने 
तो जीतना क्या है हारना क्या 
न ये ज़रूरी 
न वो अहम है 
अगर ख़ुशी है न जीतने की 
न हारने का ही कोई ग़म है

तो खेल क्या है
मैं सोचता हूँ
जो खेलना है
तो अपने दिल में यकीन कर लूँ
ये मोहरे सचमुच के बादशाहो-वज़ीर
सचमुच के हैं प्यादे 
और इनके आगे है
दुश्मनों की वो फ़ौज
रखती है जो कि मुझको तबाह करने के
सारे मनसूबे
सब इरादे
मगर मैं ऐसा जो मान भी लूँ
तो सोचता हूँ
ये खेल कब है
ये जंग है जिसको जीतना है
ये जंग है जिसमें सब है जायज़ 
कोई ये कहता है जैसे मुझसे 
ये जंग भी है
ये खेल भी है
ये जंग है पर खिलाड़ियों की 
ये खेल है जंग की तरह का 
मैं सोचता हूँ
जो खेल है
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है
कि कोई मोहरा रहे कि जाए

मगर जो है बादशाह 
उस पर कभी कोई आँच भी न आए 
वज़ीर ही को है बस इजाज़त 
कि जिस तरफ़ भी वो चाहे जाए

मैं सोचता हूँ 
जो खेल है 
इसमें इस तरह का उसूल क्यों है 
प्यादा जो अपने घर से निकले 
पलट के वापस न जाने पाए 
मैं सोचता हूँ 
अगर यही है उसूल 
तो फिर उसूल क्या है 
अगर यही है ये खेल 
तो फिर ये खेल क्या है 
मैं इन सवालों से जाने कब से उलझ रहा हूँ 
मिरे मुखालिफ ने चाल चल दी है 
और अब मेरी चाल के इंतज़ार में है

- जावेद अख़्तर।
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शनिवार, 25 नवंबर 2023

छुट्टी के एक दिन में

मेज़ पर, घर में, किताबों पर
आई हुई धूल झाड़ेंगे
जितना रोज़ सोते हैं 
उससे कुछ देर अधिक सो जाऐंगे 
पूरे हफ़्ते के पड़े हुए कपड़े 
उन्हें भी धुलना होगा 
छुट्टी के एक दिन में ही

छुट्टी के एक दिन में 
कोई किताब लेकर बैठ जाऐंगे 
या कोई सुना हुआ गीत फिर सुन लेंगे 
समय बचा तो ख़रीदारी के लिए
थोड़ी देर बाज़ार निकल जाऐंगे 

कोई आराम नहीं होता 
छुट्टी के एक दिन में, 
छुट्टी के एक दिन में भी 
छुट्टियों वाले सैकड़ों काम होते हैं

संदीप तिवारी।
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विजया सती के सौजन्य से 

शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

वो कमरा याद आता है

मैं जब भी
ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तपकर
मैं जब भी 
दूसरों के और अपने झूठ से थककर 
मैं सबसे लड़ के ख़ुद से हार के 
जब भी उस इक कमरे में जाता था 
वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा 
वो बेहद मेहरबाँ कमरा 
जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था 
जैसे कोई माँ 
बच्चे को आँचल में छुपा ले
प्यार से डाँटे 
ये क्या आदत है 
जलती दोपहर में मारे-मारे घूमते हो तुम 
वो कमरा याद आता है 
दबीज़ और ख़ासा भारी 
कुछ ज़रा मुश्किल से खुलने वाला 
वो शीशम का दरवाज़ा 
कि जैसे कोई अक्खड़ बाप
अपने खुरदुरे सीने में

शफ़्क़त के समंदर को छुपाये हो 
वो कुर्सी 
और उसके साथ वो जुड़वाँ बहन उसकी 
वो दोनों 
दोस्त थीं मेरी 
वो इक गुस्ताख़ मुँहफट आईना 
जो दिल का अच्छा था 
वो बेहंगम सी अलमारी 
जो कोने में खड़ी 
इक बूढ़ी अन्ना की तरह 
आईने को तन्बीह करती थी 
वो इक गुलदान 
नन्हा-सा 
बहुत शैतान 
उन दोनों पे हँसता था 
दरीचा 
या ज़हानत से भरी इक मुस्कुराहट 
और दरीचे पर झुकी वो बेल 
कोई सब्ज़ सरगोशी 
किताबें 
ताक़ में और शेल्फ़ पर
संजीदा उस्तानी बनी बैठीं 
मगर सब मुंतज़िर इस बात की 
मैं उनसे कुछ पूछूँ
सिरहाने

नींद का साथी
थकन का चारागर
वो नर्म-दिल तकिया
मैं जिसकी गोद में सर रखके 
छत को देखता था 
छत की कड़ियों में 
न जाने कितने अफ़सानों की कड़ियाँ थीं 
वो छोटी मेज़ पर 
और सामने दीवार पर 
आवेज़ाँ तस्वीरें 
मुझे अपनाईयत से और यक़ीं से देखतीं थीं 
मुस्कुराती थीं 
उन्हें शक भी नहीं था 
एक दिन 
मैं उनको ऐसे छोड़ जाऊँगा 
मैं इक दिन यूँ भी जाऊँगा
कि फिर वापस न आऊँगा
मैं अब जिस घर में रहता हूँ 
बहुत ही ख़ूबसूरत है 
मगर अकसर यहाँ ख़ामोश बैठा याद करता हूँ 
वो कमरा बात करता था

- जावेद अख़्तर।
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 23 नवंबर 2023

चुप रहो या बोलो

या तो चुप रहो 
या बोलो 
या तो बोलो 
या चुप रहो। 

बोलो तो इस तरह 
कि भीतर की चुप्पियों 
तक ले जाए 
बोलना। 

रहो चुप तो इस तरह 
कि भीतर की चुप्पियाँ 
गहरी, 
अथाह, बोलें।

- प्रयाग शुक्ल।

बुधवार, 22 नवंबर 2023

शहर

मैंने शहर को देखा और मैं मुस्कराया 
वहाँ कोई कैसे रह सकता है 
यह जानने मैं गया 
और वापस न आया।

- मंगलेश डबराल।

मंगलवार, 21 नवंबर 2023

पुल

पुल कोई भी हो
कितना भी मज़बूत हो
उसकी एक मियाद होती है
उसे भी एक दिन टूटना ही होता है
लेकिन कोई भी पुल
जब भी टूटे;
दूसरा पुल और ऊँचा
बन सकता है,

जैसे नदियों पर बना कोई पुल
जब भी टूटता है,
पुराने पुल के बगल
दूसरा पुल हमेशा
और ऊँचा बनता है 

- संदीप तिवारी।
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विजया सती के सौजन्य से 

सोमवार, 20 नवंबर 2023

पहाड़ में पिता

पहाड़ में पिता
मौल्यार जैसे थे
जिसके साल में एक बार आने की उम्मीद भर से 
कट जाता था सारा साल

पिता की आमद से पहले
चिट्ठी आती थी उनके आने की
और सब कुछ बदल जाता था

माँ के झुर्रियों भरे चेहरे पर 
जम जाती थी हँसी की महीन परत।
लहज़े में उसके बनाए मक्खन जैसी
आ जाती थी नरमाई।

एक रोटी ज़्यादा माँग लेने पर
चूल्हे से जलती लकड़ी निकाल लेने वाली माँ
मनुहार करके खिलाने लगती थी 
घर चौक से लेकर गुठयार तक 
लीप डालती थी एक दिन में।

पिता के आने की खबर भर से 
चीज़ों के दिन सुधरने लगते थे
धूल सनी किताबों, कपड़ों और बस्तों पर
सजने लगते थे पैबंद।

पिता हर बार बालों में 
चाँदी की एक लहर बढ़ाकर लौटते
हर बार पहले से ज़्यादा झुके होते उनके कंधे 
और हमारे सर पर हाथ रखने को उन्हें
हर बार पहले से कम झुकना पड़ता।

चेहरे पर एक पहचानी-सी अजनबियत ओढ़े पिता 
कम बोलते, कम पूछते
बस देखते रहते
जैसे सब कुछ आँखों में कैद कर लेना चाहते हों

माँ ज़्यादातर वक़्त घर पे बिताती
साल दो धोतियों में काट कर
बचाई दो नई धोतियाँ पहनकर माँ नई सी लगती
पिता के मुँह से फलाने की माँ सुनते ही
चकित हिरणी सी कुलाँचे भरती आ जाती

पिता के लाए नए कपड़ों की जेबें
गुड़ चने से भरी रहती
चौक पिता से मिलने वालों से।

पढ़ाई के लिए लैम्प चमकाने की हममें होड़ मची रहती 
समवेत स्वर में हमें पढ़ते कम चिल्लाते ज़्यादा देखते पिता
बस देखते रहते।

और फिर एक दिन मौल्यार बीत जाती
हाथों में कुछ पैसे और हिदायतें देकर 
पिता लौट जाते

लौटते पिता से हम गले मिलना चाहते
कहना चाहते कि मत जाओ 
यहाँ भी तो दुकान में गुड़ चना मिल ही जाता है
रहो यहीं 
सिखाओ हमें हल जोतना,खाट बुनना
तुम रहते हो 
तो उकाल भी ऊँधार हो जाती है पिता

हालाँकि कभी कह नहीं पाए
शायद यही सुनने के लिए बार-बार लौटते रहे पिता।

- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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विजया सती के सौजन्य से

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मौल्यार - वसंत
उकाल - चढ़ाई
ऊँधार - उतराई
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रविवार, 19 नवंबर 2023

समय

समय का
कल ही हुआ है एक बड़ा एक्सीडेंट
आज का समय गहरे दुर्घटनाग्रस्त है
दर्द से कराह रहा है
समय

ऊपर से नीचे तक
नीचे से ऊपर तक
बाएँ-दाएँ
कोने-अंतरे
हर जगह
वह टूट-फूट गया है
हिटलर, मुसोलिनी, तोजो, जार
फिर से आकर
उसके टूटे अंगों को 
जहाँ मन करे वहाँ से दबाते रहते हैं
चीत्कार उठता है
समय
दारुण दुख से
समय को लाया गया है
दुनिया के सबसे बड़े अस्पताल में
बता सको तो
बता दो मुझे
हे दुनिया के सबसे बड़े डॉक्टर!
इस घायल समय की
सबसे बड़ी टूटन क्या है
और कहाँ है।

- बद्री नारायण
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वागर्थ, नवंबर 2023

शनिवार, 18 नवंबर 2023

तलब

मैं चाय पीने के लिए
दुकान पर नहीं गया
दुकान पर गया
क्योंकि थोड़ी देर दुकान पर बैठने का मन था

दुकान पर आते-जाते लोगों को देखना था
उनकी बातें सुननी थी
और मुझे चुप रहना था

चाय को उबलते हुए
और उसे कुल्हड़ में छनते हुए देखना था
मुझे थोड़ी देर के लिए
अपने घर, कुर्सी, दरवाज़े को भूलना था
अपने कामों को भूलना था
और खुद को भूलना था

इसलिए गया चाय की दुकान पर
मुझे चाय की तलब कभी नहीं लगती
हाँ घर से निकलने की तलब लगती है

- संदीप तिवारी।
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विजया सती के सौजन्य से 

शुक्रवार, 17 नवंबर 2023

लेकिन मुलाक़ातें नहीं

दुख-सुख तो 
आते-जाते रहेंगे 
सब कुछ पार्थिव है यहाँ 
लेकिन मुलाक़ातें नहीं हैं 
पार्थिव 

इनकी ताज़गी 
रहेगी यहाँ 
हवा में! 

इनसे बनती हैं नई जगहें 
एक बार और मिलने के बाद भी 
एक बार और मिलने की इच्छा 
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी

- आलोकधन्वा।
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 16 नवंबर 2023

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था 
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था 
हताशा को जानता था 
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया 
मैंने हाथ बढ़ाया 
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ 
मुझे वह नहीं जानता था 
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था 
हम दोनों साथ चले 
दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे 
साथ चलने को जानते थे।

- विनोद कुमार शुक्ल।
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विजया सती की पसंद 

बुधवार, 15 नवंबर 2023

देखना, एक दिन

देखना -
एक दिन चुक जाएगा
यह सूर्य भी,
सूख जाएँगें सभी जल
एक दिन,
हवा
चाहे मातरिश्वा हो
नाम को भी नहीं होगी
एक दिन,
नहीं होगी अग्नि कोई
और कैसी ही,
और उस दिन
नहीं होगी मृत्तिका भी।
मगर ऐसा दिन
सामूहिक नहीं है भाई!
सबका है
लेकिन पृथक् -
वह एक दिन,
हो रहा है घटित जो
प्रत्येक क्षण
प्रत्येक दिन -
वह एक दिन।

- नरेश मेहता।
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बिनीता सहाय की पसंद 

मंगलवार, 14 नवंबर 2023

पिता कथित ईश्वर नहीं

पिता कथित ईश्वर नहीं 
जो दिखाई ही नहीं देता
पिता आकाश भी नहीं है
जो कुछ उगाता नहीं

पिता एक पेड़ होता है
जो बीज से पौधा बना है 
पिता होना एक यात्रा है
अनुभव भी है

पिता पेड़ बन रहे बीज को थपकी देता है
धौल और छाँव भी देता है
ठूँठ होने से पहले ज़मीन तैयार करता है
यात्री भी बनाता है

पिता बीज़ों के लिए खाद है
बीज भी है
जो उगता भी है
पिता कथित ईश्वर नहीं 
जो दिखाई ही नहीं देता

- मनोहर चमोली मनु।
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विजया सती के सौजन्य से 

सोमवार, 13 नवंबर 2023

नेता जी लगे मुस्कुराने

एक महाविद्यालय में
नए विभाग के लिए
नया भवन बनवाया गया,
उसके उद्घाटनार्थ
विद्यालय के एक पुराने छात्र
लेकिन नए नेता को
बुलवाया गया।

अध्यापकों ने
कार के दरवाज़े खोले
नेती जी उतरते ही बोले -
यहाँ तर गईं
कितनी ही पीढ़ियाँ,
अहा!
वही पुरानी सीढ़ियाँ!
वही मैदान
वही पुराने वृक्ष,
वही कार्यालय
वही पुराने कक्ष।
वही पुरानी खिड़की
वही जाली,
अहा, देखिए
वही पुराना माली।
मंडरा रहे थे
यादों के धुंधलके
थोड़ा और आगे गए चल के -
वही पुरानी
चिमगादड़ों की साउंड,
वही घंटा
वही पुराना प्लेग्राउंड।
छात्रों में
वही पुरानी बदहवासी,
अहा, वही पुराना चपरासी।
नमस्कार, नमस्कार!
अब आया हॉस्टल का द्वार -
हॉस्टल में वही कमरे
वही पुराना ख़ानसामा,
वही धमाचौकड़ी
वही पुराना हंगामा।

नेता जी पर
पुरानी स्मृतियाँ छा रही थीं,
तभी पाया
कि एक कमरे से
कुछ ज़्यादा ही
आवाज़ें आ रही थीं।
उन्होंने दरवाजा खटखटाया,
लड़के ने खोला
पर घबराया।
क्योंकि अंदर एक कन्या थी,
वल्कल-वसन-वन्या थी।
दिल रह गया दहल के,
लेकिन बोला संभल के -
आइए सर!
मेरा नाम मदन है,
इससे मिलिए
मेरी कज़न है।

नेता जी लगे मुस्कुराने
वही पुराने बहाने

- अशोक चक्रधर।
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विजया सती के सौजन्य से 

रविवार, 12 नवंबर 2023

रौशनी

इस रौशनी में 
थोड़ा-सा हिस्सा उसका भी है 
जिसने चाक पर गीली मिट्टी रखकर 
आकार दिया है इस दीपक को 

इस रौशनी में 
थोड़ा-सा हिस्सा उसका भी है 
जिसने उगाया है कपास 
तुम्हारी बाती के लिए 

थोड़ा-सा हिस्सा उसका भी 
जिसके पसीने से बना है तेल 

इस रौशनी में 
थोड़ा-सा हिस्सा 
उस अँधेरे का भी है 
जो दिए के नीचे 
पसरा है चुपचाप।

- मणि मोहन।
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शनिवार, 11 नवंबर 2023

जगमग-जगमग

हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!

छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!

पर्वत में, नदियों में, नहरों में,
प्यारी-प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!

राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री हैं पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!

- सोहनलाल द्विवेदी।
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संपादकीय चयन

शुक्रवार, 10 नवंबर 2023

कविता को इतना सरल होना चाहिए

कविता को इतना सरल होना चाहिए 
जितनी मुस्कान की भाषा

कवि को भी इतना सरल होना चाहिए
जितना दस का पहाड़ा

कविता और उसके कवि के लिए 
दुनिया को इतना सरल होना चाहिए
जितना मेरे लिए तुम।

- दीपिका ध्यानी घिल्डियाल।
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विजया सती के सौजन्य से 

गुरुवार, 9 नवंबर 2023

आविर्भाव

देखने के बिंदु पर -
एक फूल
सुनने के तट पर -
एक वाद्य
स्पर्श के क्षितिज पर -
एक देह
स्वाद की पहुँच पर -
एक फल
घ्राण के व्यास पर -
एक सुगंध 
और स्मरण के आकाश में -
कुछ बीते हुए पल,

ऐसे न जाने कहाँ-कहाँ
किन-किन रूपों में भटकना होता है
और तब जाकर अभिहित होती है -
एक कविता

- नरेश मेहता।
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बिनीता सहाय की पसंद 

बुधवार, 8 नवंबर 2023

तुम से आप

तुम भी जल थे
हम भी जल थे
इतने घुले-मिले थे
कि एक-दूसरे से
जलते न थे।

न तुम खल थे
न हम खल थे
इतने खुले-खुले थे
कि एक दूसरे को
खलते न थे।

अचानक हम तुम्हें खलने लगे,
तो तुम हमसे जलने लगे।
तुम जल से भाप हो गए
और 'तुम' से 'आप' हो गए।

- अशोक चक्रधर।
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विजया सती की पसंद