एक जंगल सागौन का है
एक जंगल सागौन की गंध का है
दोनों के मध्य खड़ी हूँ मैं देर से
गिरे हुए पत्तों की चरमर की ध्वनि के पीछे चल पड़ी हूँ अकस्मात
एक नन्हीं चीतल पानी पीकर नीचे उतर रही है
उसी के कदम ताल करती जंगल में धीमे-धीमे शाम भी उतर रही है।
जंगल छाँव रंगी होता जा रहा है
मन के भीतर का रंग भी बदल रहा है
उस रंग का कोई नाम नहीं है
यह बात मुझे सुंदरता के हक में ही लगती है कि
कुछ चीज़ों का नाम अब तक रखा नहीं जा सका है।
याद नहीं,
कितनी देर हुई जब अचानक ठिठक कर खड़ी हो गई थी
बस इतना स्मरण है कि एक लहटौरा की आँखों के काजल से साँझ अपना रंग ले रही थी
और मैं वहीं रुक गई थी
सागवान का जालीदार विशाल पत्ता हिला है एक मधुर आवाज़ के साथ
मैं फिर चल पड़ी हूँ मंत्रबिद्ध उसी दिशा में
अब के बरामद हुआ पूरे से ज़रा कम चाँद पेड़ के पीछे
जंगल का जादू शुरू हो रहा है,
अब जाने कितनी देर ठिठकी रहूँगी मैं।
- पल्लवी त्रिवेदी।
----------
ऋचा जैन की पसंद
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें