मंगलवार, 21 मई 2024
पहला और आख़िरी
सोमवार, 20 मई 2024
चाँदनी
रविवार, 19 मई 2024
एक तिनका
शनिवार, 18 मई 2024
प्रेम
इस बात से
अनजान थीं
और मैंने भी तुम्हें
कुछ नहीं बताया था
तुम रोती रहीं
और हाथ हिलाती रहीं
मैं तुमसे
प्रेम करते हुए
लौट आया था
शुक्रवार, 17 मई 2024
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
धूप भी चाँदनी-सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे, न रहे
कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
गुरुवार, 16 मई 2024
भीड़
एक समूचा
आदमी
न खोज पाई
एक-एक टुकड़ा बीनती रही
फिर भी न जोड़ पाई
पता ही नहीं चला
भीड़ में से आदमी
कब खो गया?
बिखर गया, खिसक गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह
और मुझे बरसों हो गए हैं
मैं उसे खोज रही हूँ
कभी नितांत अकेले में
कभी भीड़ में
और हो जाती हूँ
पराजित
क्योंकि आदमी
आदमी की भीड़ में है ही नहीं
- निर्मला सिंह
बुधवार, 15 मई 2024
होश में आने से पहले
दर्द,
उत्पीड़न,
ग़रीबी,
जैसे शब्द नही है उनके शब्दकोश में
ये सब महलों के बाशिन्दे हैं
फिर भी कभी–कभी
कर लेते हैं बात इन मुद्दों पर
भावावेश में हम भी आ जाते हैं
और हार जाती है
हिम्मत हमारी हर बार
वे खेलते हैं
हमारी मूर्छित चेतना से
फिर होश में आने से पहले
बदल जाती है उनकी दुनिया
हम रह जाते अवाक..
हमारे कण्ठ से
नही फूट पाता विद्रोह का एक भी स्वर
ऐसा क्यों ....?
मंगलवार, 14 मई 2024
उर्वर प्रदेश
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने
फेंके हैं अंकुर।
दो दिनों के बाद लौटा हूँ वापस
अजीब गंध है घर में
किताबों, कपड़ों और निर्जन हवा की
फेंटी हुई गंध
पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त
और जकड़ा है जग में बासी जल
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान
मेरे साथ
तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा
सहता जल का समस्त कोलाहल—
और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को
पोसते रहे हैं ये अंकुर
खोलता हूँ खिड़की
और चारों ओर से दौड़ती है हवा
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती
मुझसे बाहर मुझसे अनजान
बदल रहा है संसार
आज मैं लौटा हूँ अपने घर
दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर-प्रदेश
सामने है पोखर अपनी छाती पर
जलकुंभियों का घना संसार भरे।
सोमवार, 13 मई 2024
मुझे तुमसे प्रेम है
रविवार, 12 मई 2024
होटल
शनिवार, 11 मई 2024
निशानी
मुझ को तस्वीर भी देगा तो पुरानी देगा
छोड़ जाएगा मिरे जिस्म में बिखरा के मुझे
वक़्त-ए-रुख़्सत भी वो इक शाम सुहानी देगा
उम्र भर मैं कोई जादू की छड़ी ढूँढूगीं
मेरी हर रात को परियों की कहानी देगा
हम-सफ़र मील का पत्थर नज़र आएगा कोई
फ़ासला फिर मुझे उस शख़्स का सानी देगा
मेरे माथे की लकीरों में इज़ाफ़ा कर के
वो भी माज़ी की तरह अपनी निशानी देगा
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा
- अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
अनूप भार्गव के सौजन्य से
शुक्रवार, 10 मई 2024
होना होगा
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को मनुष्य होना होगा
ख़ारिज एक शब्द नहीं हथौड़ा है
मादा की जगह लिखना होगा
सृष्टि, मोहब्बत,
जीने की कला
शीशे की नोक पर जिजीविषा
मनुष्य
लिखना नहीं
मनुष्य होना होगा।
- अर्चना लार्क।
गुरुवार, 9 मई 2024
सिलसिला
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआए हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाए
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा
यह सही है कि नारों को
नई शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे।
बुधवार, 8 मई 2024
मेरे देश की आँखें
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...
- अज्ञेय।
मंगलवार, 7 मई 2024
करुणा का पाठ
सोमवार, 6 मई 2024
मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा
अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा
ये एक मेला है वा'दा किसी से क्या लेगा
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा
मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा
कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा
मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा
हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम'
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा
- वसीम बरेलवी।
रविवार, 5 मई 2024
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
डालें टूटी हैं झकोर से।
किससे दुख की बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
हमने खोला आलमारी को,
बुला रहे हैं बेचारी को।
पर वो चीं-चीं कर्राती है
घर में तो वो नहीं रहेगी!
घर में पेड़ कहाँ से लाएँ,
कैसे यह घोंसला बनाएँ!
कैसे फूटे अंडे जोड़े,
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
- महादेवी वर्मा।
शनिवार, 4 मई 2024
कमरे में धूप
दीवारें सुनती रहीं।
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगड़कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया!
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठकर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।
धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।
- कुँवर नारायण।
शुक्रवार, 3 मई 2024
अंदर ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं
गुरुवार, 2 मई 2024
नीरज के दोहे
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए
ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास
बुधवार, 1 मई 2024
किताबें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।
----किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!
- सफ़दर हाशमी।
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मंगलवार, 30 अप्रैल 2024
विचार आते हैं
सोमवार, 29 अप्रैल 2024
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
रविवार, 28 अप्रैल 2024
आम और पत्तियाँ
शनिवार, 27 अप्रैल 2024
टेढ़ी-मेढ़ी चाल
सीधा चलने से
परहेज़ नहीं है
मगर
ऐसे टेढ़े-मेढ़े
चलने से
टेढ़ा-मेढ़ा चलने लगता है
चाँद भी।
युगों-युगों से
सीधी चली आ रही
सड़क में भी
आ जाता है
हल्का-सा टेढ़ापन
और इसी टेढ़ेपन में
ज़िंदा रह जाते हैं
कुछ मुहावरे
बिखराव के।
- अर्पिता राठौर।
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संपादकीय चयन
शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024
अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
गुरुवार, 25 अप्रैल 2024
क्या तुम जानते हो?
क्या तुम जानते हो
पुरुष से भिन्न
एक स्त्री का एकांत?
घर, प्रेम और जाति से अलग
एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन
के बारे में बता सकते हो तुम?
बता सकते हो
सदियों से अपना घर तलाशती
एक बेचैन स्त्री को
उसके घर का पता?
क्या तुम जानते हो
अपनी कल्पना में
किस तरह एक ही समय में
स्वयं को स्थापित और निर्वासित
करती है एक स्त्री?
सपनों में भागती
एक स्त्री का पीछा करते
कभी देखा है तुमने उसे
रिश्तों के कुरुक्षेत्र में
अपने आपसे तड़ते?
तन के भूगोल से परे
एक स्त्री के
मन की गाँठें खोल कर
कभी पढ़ा है तुमने
उसके भीतर का खौलता इतिहास?
पढ़ा है कभी
उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ
शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?
उसके अंदर वंशबीज बाते
क्या तुमने कभी महसूसा है
उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर?
क्या तुम जानते हो
एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?
बता सकते हो तुम
एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते
उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?
अगर नहीं!
तो फिर जानते क्या हो तुम
रसोई और बिस्तर के गणित से परे
एक स्त्री के बारे में...?
- निर्मला
पुतुल
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संपादकीय चयन
बुधवार, 24 अप्रैल 2024
माँएँ
मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा
सोमवार, 22 अप्रैल 2024
दिन गीत-गीत हो चला
रविवार, 21 अप्रैल 2024
सृजन बिकने नहीं देंगे
शनिवार, 20 अप्रैल 2024
सफलता पाँव चूमे
शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024
रसोई
गुरुवार, 18 अप्रैल 2024
यात्री-मन
बुधवार, 17 अप्रैल 2024
लिखी हुई संदिग्ध भूमिका
मंगलवार, 16 अप्रैल 2024
छंद को बिगाड़ो मत
सोमवार, 15 अप्रैल 2024
धूप का गीत
रविवार, 14 अप्रैल 2024
इक नज़्म
शनिवार, 13 अप्रैल 2024
उषा की लाली
शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024
नीम
गुरुवार, 11 अप्रैल 2024
कृतज्ञता
बुधवार, 10 अप्रैल 2024
अपने घर में ही अजनबी की तरह
मंगलवार, 9 अप्रैल 2024
औरतें और हम
सोमवार, 8 अप्रैल 2024
इच्छा
रविवार, 7 अप्रैल 2024
तू इतना प्यार न कर मुझसे
शनिवार, 6 अप्रैल 2024
बड़े बेख़ौफ़ होकर आज पंछी डोलते हैं
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024
अँधेरों के विरुद्ध
गुरुवार, 4 अप्रैल 2024
पगडंडी
बुधवार, 3 अप्रैल 2024
पहाड़ों के अप्रैल के ज़ख़्मों का क़सीदा
सात काफल के पेड़ों पर फल आ चुके हैं।
सुर्ख लाल फूलों से लदे बुरांश की सघनता में
एक मुनाल टहनियों पर फुदक रहा है।
बांज के जंगलों की गहरी छाया में
झींगुरों की एकरस आवाज़ें हैं।
चिंतनरत सरू और देवदारु के
पेड़ों के बीच से झाँकती हैं बर्फीली चोटियांँ
रह-रहकर बादल उन्हें छेड़ रहे हैं
पहाड़ों में अप्रैल के सुनसान में
प्यार करने,
बेवफ़ाइयों की विवशता को याद करने
और टीसते हृदय में
तपती चमकती कटार घोंपकर
हाराकीरी करने के बारे में
सोचा जा सकता है
गिरफ़्त में फँसकर।
सहसा बज उठता है मोबाइल
मानवीय तुच्छताओं की याद दिलाते हुए,
एक दार्शनिक मृत्यु और स्वार्थपूर्ण प्यार के
ऐन्द्रजालिक आकर्षण से उबारते हुए
और यह याद दिलाते हुए कि
कल सुबह नीचे मैदानों की ओर रवाना हो जाना है
जीवन की ठोस वास्तविकताओं की ओर।
तुच्छताओं के बीच
उदात्तता की खोज जारी रहे
और जीवन में थोड़ी कविता
हर सूरत में बची रहे,
ऐसा सोचना भी
इतिहास-बोध का ही एक हिस्सा है।
- कात्यायनी।
- काफल - पहाड़ का एक फल जो बेर जैसा होता है।
- मुनाल - एक पक्षी
- बांज - पहाड़ में एक वृक्ष का नाम जैसे चीड़, देवदार।
मंगलवार, 2 अप्रैल 2024
हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
सोमवार, 1 अप्रैल 2024
मेरे स्वर में स्वर यदि दोगे
रविवार, 31 मार्च 2024
शनिवार, 30 मार्च 2024
खंडित प्रतिमाएँ
शुक्रवार, 29 मार्च 2024
एक माँ की डायरी
गुरुवार, 28 मार्च 2024
सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ
बुधवार, 27 मार्च 2024
उड़ान शेष है
मंगलवार, 26 मार्च 2024
तुम्हारी ही आमद है
सोमवार, 25 मार्च 2024
नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे
रविवार, 24 मार्च 2024
मुखड़ा हुआ अबीर
शनिवार, 23 मार्च 2024
ताज़े गुलाब का उन्माद
शुक्रवार, 22 मार्च 2024
तितली का सपना
गुरुवार, 21 मार्च 2024
कहीं चंदन महकता है कहीं केसर महकता है
बुधवार, 20 मार्च 2024
एक दिन
मंगलवार, 19 मार्च 2024
हँसी का रंग हरा होता है
सोमवार, 18 मार्च 2024
मित्र राग में सोचते हुए
शनिवार, 24 फ़रवरी 2024
रियायत
शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024
विदा
गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024
पहला आंदोलन
बुधवार, 21 फ़रवरी 2024
एक सूर्य डूबा
मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024
पर आँखें नहीं भरीं
सोमवार, 12 फ़रवरी 2024
किताबें
रविवार, 11 फ़रवरी 2024
यौवन
शनिवार, 10 फ़रवरी 2024
शहर और गाय
शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024
एक कवि की इच्छा
गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024
मुकुट
बुधवार, 7 फ़रवरी 2024
दूब
मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024
यादें
सोमवार, 5 फ़रवरी 2024
धीरे-धीरे उपन्यास
रविवार, 4 फ़रवरी 2024
एकांत
शनिवार, 3 फ़रवरी 2024
देह की कील से बँधी घर बाहर स्त्री
शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024
दफ़्तर में धूप
गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024
पत्नी
बुधवार, 31 जनवरी 2024
प्रायश्चित
मंगलवार, 30 जनवरी 2024
किवाड़
सोमवार, 29 जनवरी 2024
पिताजी और चौबीस इंच की साइकिल
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बात सीधी थी पर एक बार भाषा के चक्कर में ज़रा टेढ़ी फँस गई। उसे पाने की कोशिश में भाषा को उलटा पलटा तोड़ा मरोड़ा घुमाया फिराया कि बात या तो ब...
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पत्थरों में कचनार के फूल खिले हैं इनकी तरफ़ देखते ही आँखों में रंग छा जाते हैं मानो ये चंचल नैन इन्हें जनमों से जानते थे। मानो हृदय ही फूला...
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चेतना पारीक कैसी हो? पहले जैसी हो? कुछ-कुछ ख़ुश कुछ-कुछ उदास कभी देखती तारे कभी देखती घास चेतना पारीक, कैसी दिखती हो? अब भी कविता लिखती हो? ...