मंगलवार, 21 मई 2024

पहला और आख़िरी

वह पहली घड़ी थी
जब मैंने पूछा था -
तुम कौन हो?

और मेरा सवाल
गूँजते हुए
जवाब बन गया -

मैं तुम हूँ!

बाक़ी ज़िंदगी गुज़र गई
तुम और मैं के इस खेल में।

- उज्ज्वल भट्टाचार्य
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 20 मई 2024

चाँदनी

जब से सँभाला होश मेरी काव्य चेतना ने
मेरी कल्पना में आती-जाती रही चाँदनी।

आधी-आधी रात मेरी आँख से चुरा के नींद
खेत खलिहान में बुलाती रही चाँदनी।

सुख में तो सभी मीत होते किंतु दुख में भी
मेरे साथ-साथ गीत गाती रही चाँदनी।

जाने किस बात पे मैं चाँदनी को भाता रहा
और बिना बात मुझे भाती रही चाँदनी।

- उदयप्रताप सिंह
------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की सौजन्य से 

रविवार, 19 मई 2024

एक तिनका

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।1।

मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।2।

जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।3।

- अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
--------------------------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 18 मई 2024

प्रेम

तुम
इस बात से
अनजान थीं
और मैंने भी तुम्हें
कुछ नहीं बताया था
तुम रोती रहीं
और हाथ हिलाती रहीं
मैं तुमसे
प्रेम करते हुए
लौट आया था

- अनिल जनविजय
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 17 मई 2024

तू मुझे इतने प्यार से मत देख

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साये में
धूप भी चाँदनी-सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे

प्यार की ये नज़र रहे, न रहे
कौन दश्त-ए-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख

- अली सरदार जाफ़री

-------------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

गुरुवार, 16 मई 2024

भीड़

मैं सड़क की भीड़ में
एक समूचा
आदमी
न खोज पाई
एक-एक टुकड़ा बीनती रही
फिर भी न जोड़ पाई
पता ही नहीं चला
भीड़ में से आदमी
कब खो गया?

बिखर गया, खिसक गया
मुट्ठी में बंद रेत की तरह
और मुझे बरसों हो गए हैं
मैं उसे खोज रही हूँ
कभी नितांत अकेले में
कभी भीड़ में
और हो जाती हूँ
पराजित
क्योंकि आदमी
आदमी की भीड़ में है ही नहीं
 
- निर्मला सिंह
----------------

संपादकीय चयन 

बुधवार, 15 मई 2024

होश में आने से पहले

दर्द,

उत्पीड़न,

ग़रीबी,

जैसे शब्द नही है उनके शब्दकोश में

ये सब महलों के बाशिन्दे हैं

फिर भी कभी–कभी

कर लेते हैं बात इन मुद्दों पर

भावावेश में हम भी आ जाते हैं

और हार जाती है

हिम्मत हमारी हर बार

वे खेलते हैं

हमारी मूर्छित चेतना से

फिर होश में आने से पहले

बदल जाती है उनकी दुनिया

हम रह जाते अवाक..

हमारे कण्ठ से

नही फूट पाता विद्रोह का एक भी स्वर

ऐसा क्यों ....?


-नित्यानंद गायेन
------------------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 14 मई 2024

उर्वर प्रदेश

मैं जब लौटा तो देखा 
पोटली में बँधे हुए बूँटों ने 
फेंके हैं अंकुर। 

दो दिनों के बाद लौटा हूँ वापस 
अजीब गंध है घर में 
किताबों, कपड़ों और निर्जन हवा की 
फेंटी हुई गंध 

पड़ी है चारों ओर धूल की एक पर्त 
और जकड़ा है जग में बासी जल 
जीवन की कितनी यात्राएँ करता रहा यह निर्जन मकान 
मेरे साथ 
तट की तरह स्थिर, पर गतियों से भरा 
सहता जल का समस्त कोलाहल— 
सूख गए हैं नीम के दातौन 

और पोटली में बँधे हुए बूँटों ने फेंके हैं अंकुर 
निर्जन घर में जीवन की जड़ों को 
पोसते रहे हैं ये अंकुर 

खोलता हूँ खिड़की 
और चारों ओर से दौड़ती है हवा 
मानो इसी इंतज़ार में खड़ी थी पल्लों से सट के 
पूरे घर को जल भरी तसली-सा हिलाती 
मुझसे बाहर मुझसे अनजान 

बदल रहा है संसार 
आज मैं लौटा हूँ अपने घर 

दो दिनों के बाद आज घूमती पृथ्वी के अक्ष पर 
फैला है सामने निर्जन प्रांत का उर्वर-प्रदेश 
सामने है पोखर अपनी छाती पर 
जलकुंभियों का घना संसार भरे।
 
- अरुण कमल
 --------------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 13 मई 2024

मुझे तुमसे प्रेम है

मैं जीतता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं पराजित होता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है

मैं शब्दों में रचता हूँ तुम्हें
शब्दों से छूता हूँ
शब्दों में भोगता हूँ

मैं चाहता हूँ हर शब्द तुम्हारे लिए हो —

ये अग्निशिखर हैं,
ऊँची उठती मीनारें हैं,
न लौटे हुए समुद्र में भटकते जहाज़ हैं,
क़िले में दफ़्न एक ख़ामोश मक़बरा है,

पहाड़ी ढलान से उतरती बारिश है,
गिरती बिजलियों में दमकता तुम्हारा सुर्ख़ चेहरा,
छाती पर उभरा रात का सूरज,
खोई कल्पनाओं की बंद सीपियाँ

ये फ़र्श, छायाएँ और आलोड़न
कुर्सियाँ, किताबें और परदे
खिड़कियाँ, तस्वीरें और जालियाँ
लकड़ी, शहद और इत्र

सब तुम्हारे लिए
हाँ, सब तुम्हारे लिए
मैं इनमें धँसता हूँ
चीन्हता हूँ अपने विजेता शब्द

मैं रीतता हूँ
क्योंकि मुझे तुमसे प्रेम है।

- नीलोत्पल
-------------

संपादकीय चयन 

रविवार, 12 मई 2024

होटल

एक

सब कुछ यही रहता।

ऐसी ही थाली
ऐसी ही कटोरी, ऐसा ही गिलास
ऐसी ही रोटी और ऐसा ही पानी;

बस थाली के एक तरफ़
माँ ने रख दी होती एक सुडौल हरी मिर्च
और थोड़ा-सा नमक।

 दो 

जैसे ही कौर उठाया
हाथ रुक गया।

सामने किवाड़ से लगकर 
रो रहा था वह लड़का
जिसने मेरे सामने
रक्खी थी थाली।

- अरुण कमल
----------------

शनिवार, 11 मई 2024

निशानी

अपनी बीती हुई रंगीन जवानी देगा 
मुझ को तस्वीर भी देगा तो पुरानी देगा 

छोड़ जाएगा मिरे जिस्म में बिखरा के मुझे 
वक़्त-ए-रुख़्सत भी वो इक शाम सुहानी देगा
 
उम्र भर मैं कोई जादू की छड़ी ढूँढूगीं 
मेरी हर रात को परियों की कहानी देगा 

हम-सफ़र मील का पत्थर नज़र आएगा कोई 
फ़ासला फिर मुझे उस शख़्स का सानी देगा 

मेरे माथे की लकीरों में इज़ाफ़ा कर के 
वो भी माज़ी की तरह अपनी निशानी देगा
 
मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त 
कौन जंगल में लगे पेड़ को पानी देगा
 
- अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा
----------------------------

अनूप भार्गव के सौजन्य से 

शुक्रवार, 10 मई 2024

होना होगा

आँसू को आग
क्षमा को विद्रोह
शब्द को तीखी मिर्च
विचार को मनुष्य होना होगा
ख़ारिज एक शब्द नहीं हथौड़ा है
मादा की जगह लिखना होगा
सृष्टि, मोहब्बत,
जीने की कला
शीशे की नोक पर जिजीविषा
मनुष्य
लिखना नहीं
मनुष्य होना होगा।

- अर्चना लार्क।
---------------

संपादकीय चयन 

गुरुवार, 9 मई 2024

सिलसिला

हवा गरम है
और धमाका एक हलकी-सी रगड़ का
इंतज़ार कर रहा है
कठुआए हुए चेहरों की रौनक
वापस लाने के लिए
उठो और हरियाली पर हमला करो
जड़ों से कहो कि अंधेरे में
बेहिसाब दौड़ने के बजाए 
पेड़ों की तरफदारी के लिए
ज़मीन से बाहर निकल पड़े
बिना इस डर के कि जंगल
सूख जाएगा
यह सही है कि नारों को
नई शाख नहीं मिलेगी
और न आरा मशीन को
नींद की फुरसत
लेकिन यह तुम्हारे हक में हैं
इससे इतना तो होगा ही
कि रुखानी की मामूली-सी गवाही पर
तुम दरवाज़े को अपना दरवाज़ा
और मेज़ को
अपनी मेज कह सकोगे।

- सुदामा पाण्डेय 'धूमिल'
   ------------------------

  संपादकीय चयन 

बुधवार, 8 मई 2024

मेरे देश की आँखें

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं
पुते गालों के ऊपर
नकली भवों के नीचे
छाया प्यार के छलावे बिछाती
मुकुर से उठाई हुई
मुस्कान मुस्कुराती
ये आँखें -
नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं...
 
तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से
शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ -
नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं...
 
वन डालियों के बीच से
चौंकी अनपहचानी
कभी झाँकती हैं
वे आँखें,
मेरे देश की आँखें,
खेतों के पार
मेड़ की लीक धारे
क्षिति-रेखा को खोजती
सूनी कभी ताकती हैं
वे आँखें...
 
उसने
झुकी कमर सीधी की
माथे से पसीना पोछा
डलिया हाथ से छोड़ी
और उड़ी धूल के बादल के
बीच में से झलमलाते
जाड़ों की अमावस में से
मैले चाँद-चेहरे सुकचाते
में टँकी थकी पलकें
उठायीं -
और कितने काल-सागरों के पार तैर आयीं
मेरे देश की आँखें...

- अज्ञेय।
---------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 7 मई 2024

करुणा का पाठ

माँ, मुझे करुणा का अर्थ नहीं आता
बार-बार पूछता हूँ टीचर ‘सर’ से
वे झुँझला कर बताते हैं बहुत से अर्थ
उलझे-उलझे
लेकिन कितना छूट जाता है पीछे
 
मैं कहता हूँ रहने दें सर
माँ से पूछ लूँगा
वे हँसते हैं
 
जब अँधेरा टूटने को होता है
कुछ रोशनी में तुम्हारा प्रसन्न मुख देखता हूँ
तभी करुणा के सारे अर्थ
मेरी समझ में आ जाते है
सीधे सरल अर्थ
आशा रहित दिनों में
तुम कठिन शब्दों का अर्थ समझाती हो
किस कक्षा तक
पता नहीं माँ 
तुम किस स्कूल में पढ़ी हो?
 
- नंद चतुर्वेदी।
---------------

अनूप भार्गव के सौजन्य से

सोमवार, 6 मई 2024

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा 
अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा 

ये एक मेला है वा'दा किसी से क्या लेगा 
ढलेगा दिन तो हर इक अपना रास्ता लेगा 

मैं बुझ गया तो हमेशा को बुझ ही जाऊँगा 
कोई चराग़ नहीं हूँ कि फिर जला लेगा 

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए 
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा 

मैं उस का हो नहीं सकता बता न देना उसे 
लकीरें हाथ की अपनी वो सब जला लेगा 

हज़ार तोड़ के आ जाऊँ उस से रिश्ता 'वसीम' 
मैं जानता हूँ वो जब चाहेगा बुला लेगा

- वसीम बरेलवी।
-----------------

विजय नगरकर के सौजन्य से 

रविवार, 5 मई 2024

अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?

आँधी आई जोर शोर से,
डालें टूटी हैं झकोर से।
उड़ा घोंसला अंडे फूटे,
किससे दुख की बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?

हमने खोला आलमारी को,
बुला रहे हैं बेचारी को।
पर वो चीं-चीं कर्राती है
घर में तो वो नहीं रहेगी!

घर में पेड़ कहाँ से लाएँ,
कैसे यह घोंसला बनाएँ!
कैसे फूटे अंडे जोड़े,
किससे यह सब बात कहेगी!
अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?
 
- महादेवी वर्मा।
----------------

संपादकीय चयन 

शनिवार, 4 मई 2024

कमरे में धूप

हवा और दरवाज़ों में बहस होती रही,
दीवारें सुनती रहीं।
धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी
किरणों के ऊन का स्वेटर बुनती रही।
सहसा किसी बात पर बिगड़कर
हवा ने दरवाज़े को तड़ से
एक थप्पड़ जड़ दिया!
खिड़कियाँ गरज उठीं,
अख़बार उठकर खड़ा हो गया,
किताबें मुँह बाये देखती रहीं,
पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी,
मेज़ के हाथ से क़लम छूट पड़ी।

धूप उठी और बिना कुछ कहे
कमरे से बाहर चली गई।
शाम को लौटी तो देखा
एक कुहराम के बाद घर में ख़ामोशी थी।
अँगड़ाई लेकर पलँग पर पड़ गई,
पड़े-पड़े कुछ सोचती रही,
सोचते-सोचते न जाने कब सो गई,
आँख खुली तो देखा सुबह हो गई।

- कुँवर नारायण।
------------------

संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 3 मई 2024

अंदर ऊँची ऊँची लहरें उठती हैं

अंदर ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं
काग़ज़ के साहिल पे कहाँ उतरती हैं

माज़ी की शाखों से लम्हें बरसते हैं
ज़हन के अंदर तेज़ हवाएँ चलती हैं

आँखों को बादल बारिश से क्या लेना
ये गलियाँ अपने पानी से भरती हैं

बाढ़ में बह जाती हैं दिल की दीवारें
तब आँखों से इक दो बूंदें झरती हैं

अंदर तो दीवान सा इक छप जाता है
काग़ज़ पर एहसान दो बूंदें करती हैं

रुकी-रुकी रहती हैं आँखों में बूंदें
रुखसारों पर आके कहाँ ठहरती हैं

तेरे तसव्वुर से जब शे'र निकलते हैं
इक-दो परियाँ आगे-पीछे रहती हैं

- सतीश बेदाग़।
-----------------

संपादकीय चयन 

गुरुवार, 2 मई 2024

नीरज के दोहे

दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन  

जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए

ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास 

दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप  

तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल  

पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय 

हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व

स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास

- गोपालदास नीरज।
---------------------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

बुधवार, 1 मई 2024

किताबें

किताबें करती हैं बातें
बीते जमानों की
दुनिया की, इंसानों की
आज की कल की
एक-एक पल की।
खुशियों की, गमों की
फूलों की, बमों की
जीत की, हार की
प्यार की, मार की।
सुनोगे नहीं क्या
किताबों की बातें?
किताबें, कुछ तो कहना चाहती हैं
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं।
किताबों में चिड़िया दीखे चहचहाती,
कि इनमें मिलें खेतियाँ लहलहाती।

----किताबों में झरने मिलें गुनगुनाते,
बड़े खूब परियों के किस्से सुनाते।
किताबों में साईंस की आवाज़ है,
किताबों में रॉकेट का राज़ है।
हर इक इल्म की इनमें भरमार है,
किताबों का अपना ही संसार है।
क्या तुम इसमें जाना नहीं चाहोगे?
जो इनमें है, पाना नहीं चाहोगे?
किताबें कुछ तो कहना चाहती हैं,
तुम्हारे पास रहना चाहती हैं!

- सफ़दर हाशमी।
 ------------------

अनूप भार्गव की पसंद 

मंगलवार, 30 अप्रैल 2024

विचार आते हैं

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
बोझ ढोते वक़्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चाँद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में

विचार आते हैं
लिखते समय नहीं
...पत्थर ढोते वक़्त
पीठ पर उठाते वक़्त बोझ
साँप मारते समय पिछवाड़े
बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं
नक्शे बनते हैं भौगोलिक
पीठ कच्छप बन जाती है
समय पृथ्वी बन जाता है...

- गजानन माधव मुक्तिबोध।
-----------------------------

आभार - हरप्रीत सिंह पुरी 

सोमवार, 29 अप्रैल 2024

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा

आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा

इतना मानूस न हो ख़िल्वत-ए-ग़म से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जाएगा

तुम सर-ए-राह-ए-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-ए-रफ़ाक़त से उतर जाएगा

किसी ख़ंज़र किसी तलवार को तक़्लीफ़ न दो
मरने वाला तो फ़क़त बात से मर जाएगा

ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जानेवाला
तेरी बख़्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जाएगा

डूबते-डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं कोई तो साहिल पे उतर जाएगा

ज़ब्त लाज़िम है मगर दुख है क़यामत का "फ़राज़"
ज़ालिम अब के भी न रोयेगा तो मर जाएगा

- अहमद फ़राज़।
------------------

आभार - हरप्रीत सिंह पुरी 

रविवार, 28 अप्रैल 2024

आम और पत्तियाँ

टोकरी में रखे आम 
याद तो करते होंगे 
पत्तियों के संग-साथ को 
क्या कभी जाना है तुमने 
आम और पत्तियों का अंतर्संबंध? 
साथ-साथ हवा में झूमे, चहके-महके 
बारिश में नहाए, एक साथ बौराए 
शाख़ से टपकते आम के लिए 
अकुलाती तो होंगी पत्तियाँ 
पत्थर की चोट खाकर 
आह के साथ बिछुड़ते 
आम के लिए 
दुख से कराहती हैं पत्तियाँ 
कभी आम की मिठास में 
चखो तो सही तुम 
पत्तियों की पीड़ा!

- मुकेश निर्विकार।
--------------------

संपादकीय चयन 

शनिवार, 27 अप्रैल 2024

टेढ़ी-मेढ़ी चाल

मुझे
सीधा चलने से
परहेज़ नहीं है
मगर
ऐसे टेढ़े-मेढ़े
चलने से
टेढ़ा-मेढ़ा चलने लगता है
चाँद भी।

युगों-युगों से
सीधी चली आ रही
सड़क में भी
आ जाता है
हल्का-सा टेढ़ापन
और इसी टेढ़ेपन में
ज़िंदा रह जाते हैं
कुछ मुहावरे
बिखराव के।
 
- अर्पिता राठौर।
-----------------

संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही

अगर तुम्हें नींद नहीं आ रही
तो मत करो कुछ ऐसा
कि जो किसी तरह सोए हैं 
उनकी नींद हराम हो जाए

हो सके तो बनो पहरुए
दुःस्वप्नों से बचाने के लिए उन्हें
गाओ कुछ शांत मद्धिम
नींद और पके उनकी जिससे

सोए हुए बच्चे तो नन्हें फरिश्ते ही होते हैं
और सोई स्त्रियों के चेहरों पर
हम देख ही सकते हैं थके संगीत का विश्राम
और थोड़ा अधिक आदमी होकर देखेंगे तो
नहीं दिखेगा सोये दुश्मन के चेहरे पर भी
दुश्मनी का कोई निशान

अगर नींद नहीं आ रही हो तो
हँसो थोड़ा, झाँको शब्दों के भीतर
ख़ून की जाँच करो अपने
कहीं ठंडा तो नहीं हुआ

- चंद्रकांत देवताले।
----------------------

साभार - हरप्रीत सिंह पुरी

गुरुवार, 25 अप्रैल 2024

क्या तुम जानते हो?

 क्या तुम जानते हो

पुरुष से भिन्न

एक स्त्री का एकांत?

घर, प्रेम और जाति से अलग

एक स्त्री को उसकी अपनी ज़मीन

के बारे में बता सकते हो तुम?

बता सकते हो

सदियों से अपना घर तलाशती

एक बेचैन स्त्री को

उसके घर का पता?

क्या तुम जानते हो

अपनी कल्पना में

किस तरह एक ही समय में

स्वयं को स्थापित और निर्वासित

करती है एक स्त्री?

सपनों में भागती

एक स्त्री का पीछा करते

कभी देखा है तुमने उसे

रिश्तों के कुरुक्षेत्र में

अपने आपसे तड़ते?

 

तन के भूगोल से परे

एक स्त्री के

मन की गाँठें खोल कर

कभी पढ़ा है तुमने

उसके भीतर का खौलता इतिहास?

पढ़ा है कभी

उसकी चुप्पी की दहलीज़ पर बैठ

शब्दों की प्रतीक्षा में उसके चेहरे को?

उसके अंदर वंशबीज बाते

क्या तुमने कभी महसूसा है

उसकी फैलती जड़ों को अपने भीतर?

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के समस्त रिश्ते का व्याकरण?

बता सकते हो तुम

एक स्त्री को स्त्री-दृष्टि से देखते

उसके स्त्रीत्व की परिभाषा?

अगर नहीं!

तो फिर जानते क्या हो तुम

रसोई और बिस्तर के गणित से परे

एक स्त्री के बारे में...?

- निर्मला पुतुल

------

संपादकीय चयन 

बुधवार, 24 अप्रैल 2024

माँएँ

सबसे बचा कर
छुपाकर
रखती है संदूक में
पुरानी,
बीती हुई,
सुलगती, महकती
कही-अनकही 
बातें मन की
मसालों से सने हाथों में
अक्सर छुपाकर ले जाती हैं
अपने
गीले आँसू
और ख्वाबों की गठरियाँ
देखते हुए आईना
अक्सर भूल जाती हैं
अपना चेहरा
और खालीपन ओढ़े
समेटती हैं घर भर की नाराजगी
चूल्हे का धूआँ
उनकी बांह पकड़
पूछता है
उनके पंखों की कहानी
बनाकर कोई बहाना
टाल जाती हैं
धूप की देह पर
अपनी उँगलियों से
लिखती है
कुछ...
रोक कर देर तक सांझ को
टटोलती है
अपनी परछाइयाँ
रात की मेड़ पर
देखती है
उगते हुए सपने
और
ख़ामोशी के भीतर
बजती हुई धुन पहनकर
घर भर में
बिखर जाती है!

- अनुप्रिया।
------------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 23 अप्रैल 2024

अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा

अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आइना हो जाऊँगा
उस को छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा ही नहीं
मैं गिरा तो मसअला बन कर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा

सारी दुनिया की नज़र में है मिरा अहद-ए-वफ़ा
इक तिरे कहने से क्या मैं बेवफ़ा हो जाऊँगा

- वसीम बरेलवी।
------------------

अनूप भार्गव की पसंद 

सोमवार, 22 अप्रैल 2024

दिन गीत-गीत हो चला

एक क्षण तुम्‍हारे ही मीठे संदर्भ का,
सारा दिन गीत-गीत हो चला।

फैलने लगे मन से देह तक
चाँदनी-कटे साये राह के,
अजनबी निगाहों ने तय किए
फासले समानांतर दाह के,
अग्नि-झील तक हम को ले गई
जोड़ भर गुलाबों की शृंखला।

तोड़कर घुटन वाले दायरे
एक प्‍यास शब्‍दों तक आ गई,
कंधों पर मरुथल ढोते हुए
हरी गंध प्राणों पर छा गई,
पल में कोई तुम से सीखे -
मन को फागुन करने की कला।

- सोम ठाकुर।
---------------

ऋचा जैन की पसंद 

रविवार, 21 अप्रैल 2024

सृजन बिकने नहीं देंगे

भले ही तुम प्रलोभन दो हमें अपनी कृपाओं के,
मगर हम लेखनी का बांकपन बिकने नहीं देंगे।
भले बाग़ी बताओ या हमें फाँसी चढ़ाओ तुम,
मगर हम मौत के डर से सृजन बिकने नहीं देंगे।

वही हमने लिखा है आज तक जो कुछ सहा हमने
भला डर कर किसी भी रात को कब दिन कहा हमने
इसी से हम उपेक्षित रह गए उनकी सभाओं में
न उनके साथ महफ़िल में लगाया कहकहा हमने।

निमंत्रण मिल रहे हैं आज भी सुविधा भरे हमको
मगर तन के लिए खुद्दार मन बिकने नहीं देंगे।

- उर्मिलेश।
-----------

हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

शनिवार, 20 अप्रैल 2024

सफलता पाँव चूमे

सफलता पाँव चूमे गम का कोई भी न पल आए
दुआ है हर किसी की जिंदगी में ऐसा कल आए।

ये डर पतझड़ में था अब पेड़ सूने ही न रह जाएँ
मगर कुछ रोज़ में ही फिर नए पत्ते निकल आए।

हमारे आपके खुद चाहने भर से ही क्या होगा
घटाएँ भी अगर चाहें तभी अच्छी फसल आए।

हमें बारिश ने मौका दे दिया असली परखने का
जो कच्चे रंग वाले थे वो अपने रंग बदल आए।

जहाँ जिस द्वार पर देखेंगे दाना आ ही जाएँगे
परिंदों को भी क्या मतलब कुटी आए महल आए।

हमारा क्या हम अपनी दुश्मनी भी भूल जाएँगे
मगर उस ओर से भी दोस्ती की कुछ पहल आए।

अभी तो ताल सूखा है अभी उसमें दरारें हैं
पता क्या अगली बरसातों में उसमें भी कमल आए।

- कमलेश भट्ट 'कमल'।
------------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

रसोई

एक दिन बैठे-बैठे उसने
अजीब बात सोची

सारा दिन
खाने में जाता है
खाने की खोज में
खाना पकाने में
खाना खाने खिलाने में
फिर हाथ अँचा फिर उसी दाने की टोह में

सारा दिन सालन अनाज फल मूल
उलटते पलटते काटते कतरते रिंधाते
यों बिता देते हैं जैसे
इस धरती ने बिताए करोड़ों बरस
दाना जुटाते दाना बाँटते
हर जगह हर जीव के मुँह में जीरा डालते
इस तरह की यह पूरी धरती
एक रसोई ही तो है
एक लंगर
वाहे गुरू का!

- अरुण कमल।
----------------

गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

यात्री-मन

छल-छलाई आँखों से
जो विवश बाहर छलक आए
होंठ ने बढ़कर वही
आँसू सुखाए
सिहरते चिकने कपोलों पर
किस अपरिभाषित
व्यथा की टोह लेती
उँगलियों के स्पर्श गहराए।

हृदय के भू-गर्भ पर
जो भाव थे
संचित-असंचित
एक सोते की तरह
फूटे बहे,
उमड़े नदी-सागर बने
फिर भर गए आकाश में
घुमड़ कर
बरसे झमाझम
हो गया अस्तित्व जलमय

यात्रा पूरी हुई, लय से प्रलय तक,
देहरी से देह की चलकर, हृदय तक।

एक दृढ़ अनुबंध फिर से लिख गया
डूबते मन को किनारा दिख गया।

- जगदीश गुप्त।
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

बुधवार, 17 अप्रैल 2024

लिखी हुई संदिग्ध भूमिका

लिखी हुई संदिग्ध भूमिका
जब चेहरे की पुस्तक पर
भीतर के पृष्ठों, अध्यायों को
पढ़कर भी क्या होगा?

चमकीला आवरण सुचिक्कन
और बहुत आकर्षक भी
खिंचा घने केशों के नीचे
इंद्रधनुष-सा मोहक भी

देखे, मगर अदेखा कर दे
नज़र झुका कर चल दे जो
ऐसे अपने-अनजाने के सम्मुख
बढ़कर भी क्या होगा?

अबरी गौंद शिकायत की है
मुस्कानों की जिल्द बँधी
होंठों पर उफ़नी रहती है
परिवादों से भरी नदी
 
अगर पता चल जाए कथा का
उपसंहार शुरू में ही
तो फिर शब्दों की लंबी सीढ़ी
चढ़कर भी क्या होगा?

- कुमार शिव।
--------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

छंद को बिगाड़ो मत

छंद को बिगाड़ो मत, गंध को उजाड़ो मत
कविता-लता के ये सुमन झर जाएँगे।

शब्द को उघाड़ो मत, अर्थ को पछाड़ो मत,
भाषण-सा झाड़ो मत गीत मर जाएँगे।

हाथी-से चिंघाड़ो मत, सिंह से दहाड़ो मत
ऐसे गला फाड़ो मत, श्रोता डर जाएँगे।

घर के सताए हुए आए हैं बेचारे यहाँ
यहाँ भी सताओगे तो ये किधर जाएँगे।

- ओम प्रकाश 'आदित्य'।
--------------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

सोमवार, 15 अप्रैल 2024

धूप का गीत

धूप धरा पर उतरी 
जैसे शिव के जटाजूट पर 
नभ से गंगा उतरी। 

धरती भी कोलाहल करती 
तम से ऊपर उभरी
धूप धरा पर बिखरी

बरसी रवि की गगरी, 
जैसे ब्रज की बीच गली में 
बरसी गोरस गगरी। 

फूट-कटोरों-सी मुस्काती
रूप-भरी है नगरी
धूप धरा पर बिखरी

- केदारनाथ अग्रवाल।
-----------------------

रविवार, 14 अप्रैल 2024

इक नज़्म

ये राह बहुत आसान नहीं,
जिस राह पे हाथ छुड़ाकर तुम
यूँ तन तन्हा चल निकली हो
इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ ना कहीं
हर मोड़ पर मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है!

थक जाओ अगर-
और तुमको ज़रूरत पड़ जाए,
इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!

- गुलज़ार।
-----------

शनिवार, 13 अप्रैल 2024

उषा की लाली

उषा की लाली में
अभी से गए निखर
हिमगिरि के कनक शिखर!

आगे बढ़ा शिशु रवि
बदली छवि, बदली छवि
देखता रह गया अपलक कवि
डर था, प्रतिपल
अपरूप यह जादुई आभा
जाए ना बिखर, जाए ना बिखर...

उषा की लाली में
भले हो उठे थे निखर
हिमगिरि के कनक शिखर!

- नागार्जुन।
------------

शुक्रवार, 12 अप्रैल 2024

नीम

खेत जग पड़े थे 
पत्तों से फूट रही थी चैत के शुरू की 
हल्की-हल्की लाली 
सोचा, मौसम बढ़िया है 
चलो तोड़ लाएँ नीम के दो-चार 
हरे-हरे छरके 
मैं तो उन्हें भूल चुका था 
पर मेरे दाँतों को वे अब भी 
बहुत याद आते थे 
फिर चल दिया अकेला 
सुपरिचित मेड़ों और पगडंडियों को 
लाँघता-फलाँगता हुआ 
पहुँचा गाँव के उस ऊँचे सिवान पर 
जहाँ खड़ा था न जाने कितने बरसों से 
वह घना-पुराना नीम का पेड़ 
रुका, 
कुछ देर उसे ध्यान से देखा 
फिर झुकाई एक डाल 
खींच ली एक छोटी-सी हरी छरहरी 
काँपती हुई टहनी 
बस तोड़ने को ही था 
कि अचानक दृष्टि पड़ी नीचे— 
अरे, यह कौन? 
नीमतले बैठा है 
आँख मूँदे मौन! 
पड़ गया सोच में 
दतुअन तोड़ूँ कि न तोड़ूँ 
पकड़े रहूँ कि छोड़ दूँ वह टहनी 
जो मेरे हाथ में थी! 
अंत में 
न जाने क्या आया जी में 
कि मैंने एक अजब-सी पीड़ा से 
उस तरफ़ देखा 
जिधर बैठा था वह आदमी 
और छोड़ दी नीम की झुकी हुई टहनी 
फिर लौट आया 
रास्ते भर ख़ुद से लड़ता और ख़ुद को समझता हुआ 
कि यदि कहीं तोड़ ही लेता 
कुछ हरी कच्ची उमगती हुई शाखें 
तो उसका क्या होता 
जो उन्हीं के नीचे बैठा था 
उन्हीं के जादू में 
बंद किए आँखें!

- केदारनाथ सिंह।
-------------------

गुरुवार, 11 अप्रैल 2024

कृतज्ञता

धूप और गरमी में तपता 
पसीने से लथपथ 
वह उस वृक्ष की छाया तले पहूँचा। 
छाया क्या थी। 
जल था, 
टिका दी तने से कुल्हाड़ी 
और गमछा बिछा लेट गया 
निश्चिंत। 

नींद जब खुली 
पहर ढल रहा था, 
वह हड़बड़ाता उठा 
और लगा पेड़ काटने।

 - श्रीनरेश मेहता।
------------------

बुधवार, 10 अप्रैल 2024

अपने घर में ही अजनबी की तरह

अपने घर में ही अजनबी की तरह 
मैं सुराही में इक नदी की तरह 

किस से हारा मैं ये मिरे अंदर 
कौन रहता है ब्रूसली की तरह 

उस की सोचो में मैं उतरता हूँ 
चाँद पर पहले आदमी की तरह 

अपनी तन्हाइयों में रखता है 
मुझ को इक शख़्स डाइरी की तरह 

मैं ने उस को छुपा के रक्खा है 
ब्लैक आउट में रौशनी की तरह 

टूटे बुत रात भर जगाते हैं 
सुख परेशाँ है ग़ज़नवी की तरह 

बर्फ़ गिरती है मेरे चेहरे पर 
उस की यादें हैं जनवरी की तरह 

वक़्त सा है अनंत इक चेहरा 
और मैं रेत की घड़ी की तरह 

- सूर्यभानु गुप्त।
-----------------

अनूप भार्गव की पसंद

मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

औरतें और हम

ये औरतें हैं या कि
ज़िंदगी भर की दुश्वारियाँ
एक पल को न सुकून लेती हैं न लेने देती हैं

भोर में ही उठ जाती हैं
बर्तन खड़खड़ाती हैं
चकिया घिरघिराती हैं (मिक्सी घड़घड़ाती हैं)
झाड़ू खरखराती हैं
फिर भी घुस पुसकर किसी तरह गड़े रहो बिस्तर में तो
नाश्ता लिए सिर पर मँडराती हैं

ये औरतें हैं या कि
घर की चारदीवारियाँ
ख़ुद तो कैद हैं ही 
हमें भी करना चाहती हैं

कहीं जाओ तो जाने का पता पूछती हैं
बता दो तो जाने की वजह पूछती हैं
देर से आओ तो सवाल करती हैं
और अगर न आओ तो बवाल करती हैं
दिनभर बेवजह फोन कर-करके हमारी सलामती पूछती हैं
जब झल्ला जाओ तो माफ़ी माँगती हैं
और फिर अगले दिन वही गलती 
पूरे शिद्दत से दुहराती हैं

ये औरतें हैं या कि
नाचती हुई चकरघिन्नियाँ
ख़ुद को ज़िंदगी भर 
दूसरों की ताल पर नचाती हैं

हमारी खुशी में हमसे ज़्यादा खुश होती हैं
हमारी उदासी में रोती हैं और इर्द-गिर्द मँडराती हैं
हमारे लिए हर तीज त्योंहार उपवास में गँवाती हैं
किसी वजह से अगर हम खाना न खाएँ तो
आगे-पीछे के कई दिनों का हिसाब लगाती हैं और
अपनी ही कोई गलती ढूँढकर पछताती हैं
हमारी सफलता की मुट्ठी भर राई पूरी धरती पर बो आती हैं
हमारी नाकामियों के काँटों को 
अपनी देह की मिट्टी में दबाती हैं, छुपाती हैं

ये औरतें हैं या कि
पागल-सी बदलियाँ
हमारे सूखे दिनों पर बिन कहे बरस जाती हैं

कितनी भी सख़्ती दिखाएँ 
पर एक स्पर्श से पिघल जाती हैं
हम धूप में हों तो ख़ुद को 
छाया में बदलने का जादू दिखाती हैं
हरियाली इनके होने का रंग है
तवज्जो न मिले तो घास बनी रहती हैं
मिल जाए तो नीम पीपल आम बन गछनार हो जाती हैं

ये औरतें हैं या कि
हम एहसानफरामोशों की डायरियाँ
इनको पढ़ो तो बस आइना दिखाती हैं

इनके हर पृष्ठ पर फैली है हमारी उपेक्षा की बदरंग स्याही
हर पंक्ति में बिखरे पड़े हैं हमारी चालाकियों के हर्फ़ 
इनमें पढ़ी जा सकती है हमसे की गई 
और फिर बेमौत मरी उम्मीदों की रुदाली
तलाशा जा सकता है संबंधों का अस्त-पस्त व्याकरण
तितर-बितर औंधी पड़ी सामंजस्य की मात्राएँ
जगह-जगह बाधित प्रेम का अल्पविराम और फिर पूर्णविराम।

- आलोक कुमार मिश्रा।
-------------------------

विजया सती के सौजन्य से 

सोमवार, 8 अप्रैल 2024

इच्छा

मैं जब उठूँ तो भादों हो 
पूरा चंद्रमा उगा हो ताड़ के फल सा
गंगा भरी हो धरती के बराबर 
खेत धान से धधाए
और हवा में तीज त्यौहार की गमक

इतना भरा हो संसार 
कि जब मैं उठूँ तो चींटी भर जगह भी 
खाली न हो 

- अरुण कमल।
----------------

रविवार, 7 अप्रैल 2024

तू इतना प्यार न कर मुझसे

तू इतना प्यार न कर मुझसे 
जो ख़ुद से मिलने को तरसूँ! 

जो प्यारी लगे सभी को ही 
मैं ऐसी कोई बात नहीं 
हूँ मरुस्थल की सूखी रेती 
मैं मेघ बनूँ औक़ात नहीं 

पर मेघ बनूँ तो यह मन है 
तेरे घर-आँगन में बरसूँ! 

तू इतना प्यार न कर मुझसे 
जो ख़ुद से मिलने को तरसूँ! 

पानी था, लेकिन दुनिया ने 
कह दिया मुझे पत्थर-काया 
सबकी नज़रों का काँटा मैं 
खिलकर भी फूल न बन पाया 

हाँ, अगर कभी मैं फूल बनूँ 
तेरी फुलबग़िया में सरसूँ! 

तू इतना प्यार न कर मुझसे 
जो ख़ुद से मिलने को तरसूँ!

- कुँअर बेचैन।
---------------

शनिवार, 6 अप्रैल 2024

बड़े बेख़ौफ़ होकर आज पंछी डोलते हैं

बड़े बेख़ौफ़ होकर आज पंछी डोलते हैं 
सदी ख़ामोश बैठी है कि पत्थर बोलते हैं 

यही पल है कि जिस पल में हमारे पास बैठो 
कि आओ आज हम गिरहें दिलों की खोलते हैं 

नहीं मज़हब, नहीं दौलत, न सामाँ की ज़रूरत 
मुहब्बत को मुहब्बत की नज़र से तोलते हैं 

बहुत से लोग हैं जो अब भी उल्फ़त बो रहे हैं 
बहुत से लोग नफ़रत का ही मट्ठा घोलते हैं 

सबक़ कोई किताबी याद रहता ही नहीं है 
जो सीखा ज़िंदगी से बस वही हम बोलते हैं 

जो झूठे हैं, बहुत महफ़ूज़ हैं दुनिया में अपनी 
ये सच्चे लोग हैं, जो सर पे आफ़त मोलते हैं

- लक्ष्मण गुप्त।
---------------

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2024

अँधेरों के विरुद्ध

पिघलने दो
बर्फ़ होते सपनों को
कि
बनते रहें
आँखों में उजालों के नए प्रतिबिंब 
छूने दो
अल्हड़ पतंगों को
आकाश की हदें
कि गढ़े जाएँ
ऊँचाई के नित नए प्रतिमान
बढ़ने दो
शोर हौंसलों का
कि
घुलते रहें
रौशनी के हर नए रंग
ज़िंदगी में
हर अँधेरे के विरुद्ध।

- अनुप्रिया।
------------

गुरुवार, 4 अप्रैल 2024

पगडंडी

जहाँ से सड़क ख़त्म होती है
वहाँ से शुरू होता है
यह सँकरा रास्ता
बना है जो कई वर्षों में
पाँवों की ठोकरें खाने के बाद,
इस पर घास नहीं उगती
न ही होते हैं लैम्पपोस्ट
सिर्फ़ भरी होती है ख़ुशियाँ
लोगों के घर लौटने की!

- नरेश अग्रवाल।
-----------------

बुधवार, 3 अप्रैल 2024

पहाड़ों के अप्रैल के ज़ख़्मों का क़सीदा

कतारबद्ध भिक्षुओं की तरह विनम्र खड़े 
सात काफल के पेड़ों पर फल आ चुके हैं।
सुर्ख लाल फूलों से लदे बुरांश की सघनता में 
एक मुनाल टहनियों पर फुदक रहा है।
बांज के जंगलों की गहरी छाया में 
झींगुरों की एकरस आवाज़ें हैं।
चिंतनरत सरू और देवदारु के 
पेड़ों के बीच से झाँकती हैं बर्फीली चोटियांँ
रह-रहकर बादल उन्हें छेड़ रहे हैं

पहाड़ों में अप्रैल के सुनसान में 
प्यार करने,
बेवफ़ाइयों की विवशता को याद करने 
और टीसते हृदय में 
तपती चमकती कटार घोंपकर 
हाराकीरी करने के बारे में 
सोचा जा सकता है
एक विचारहीन साहस और वैराग्य भाव की
गिरफ़्त में फँसकर।

सहसा बज उठता है मोबाइल 
मानवीय तुच्छताओं की याद दिलाते हुए,
एक दार्शनिक मृत्यु और स्वार्थपूर्ण प्यार के 
ऐन्द्रजालिक आकर्षण से उबारते हुए 
और यह याद दिलाते हुए कि 
कल सुबह नीचे मैदानों की ओर रवाना हो जाना है 
जीवन की ठोस वास्तविकताओं की ओर।

तुच्छताओं के बीच 
उदात्तता की खोज जारी रहे 
और जीवन में थोड़ी कविता 
हर सूरत में बची रहे,
ऐसा सोचना भी 
इतिहास-बोध का ही एक हिस्सा है।

- कात्यायनी।
--------------
  • काफल - पहाड़ का एक फल जो बेर जैसा होता है।
  • मुनाल - एक पक्षी
  • बांज - पहाड़ में एक वृक्ष का नाम जैसे चीड़, देवदार।
--------------
विजया सती के सौजन्य से।

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं

हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं
 
धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से
मुहब्बत से ही खुश्बू, फूल, सूरज, चाँद होते हैं
 
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख़ बदलने की
परिंदे जो यहाँ परवाज़ पर तूफ़ान ढोते हैं
 
अजब से कुछ भुलैयों के बने हैं रास्ते उनके
पलट के फिर कहाँ आए, जो इन गलियों में खोते हैं
 
जगी हैं रात भर पलकें, ठहर ऐ सुब्‍ह थोड़ा तो
मेरी इन जागी पलकों में अभी कुछ ख़्वाब सोते हैं
 
मिली धरती को सूरज की तपिश से ये खरोंचे जो
सितारे रात में आकर उन्हें शबनम से धोते हैं
 
लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है
वो कोई और होंगे अपनी क़िस्मत पे जो रोते हैं

- गौतम राजऋषि।
-------------------

सोमवार, 1 अप्रैल 2024

मेरे स्वर में स्वर यदि दोगे

मेरे स्वर में स्वर यदि दोगे 
मैं नभ में गायन भर दूँगा

आज अकेले का बल क्या है 
बलि देने का ही फल क्या है 
एकाकी हूँ मैं वन-पथ पर 
आज क्षरण, जाने कल क्या है 

मेरे कर में कर यदि दोगे 
मैं अनंत यौवन वर लूँगा 

बड़ी-बड़ी अभिलाषाएँ हैं
खंडित सारी आशाएँ हैं 
अधर-अधर ने गरल पिया है 
दलित सत्य की भाषाएँ हैं 

मुझे समर के शर यदि दोगे 
मैं संसृति का दुख हर लूँगा 

- कृष्ण मुरारी पहारिया।
-------------------------

रविवार, 31 मार्च 2024

शनिवार, 30 मार्च 2024

खंडित प्रतिमाएँ

अब वे सब की सब
रख दी गई हैं
एक पुराने बरगद के नीचे
यही तरीका है शायद
कि संभव नहीं हो नदी में विसर्जन
तो रख देते हैं खंडित प्रतिमाओं को
किसी पेड़ के नीचे
कभी पूजाघरों में प्रतिष्ठित
इन्हीं के सामने खड़े होते थे लोग
अपनी संपूर्ण दयनीयता, विनम्रता
और भक्तिभाव समेटे
जोड़कर कातर हाथ!
यही बचाती थीं
बच्चों को रोगों से
दिलाती थीं परीक्षाओं में नंबर 
सुधार देती थीं बिगड़ा हुआ पेपर
सुरक्षित ले आतीं थीं बच्चों के पिता को
दूसरे शहरों से
ध्यान रखती थी होस्टल में पढ़ रही बेटी का
पूरी हुई कितनी मन्नतें इन्हीं की पूजा से
अब वे उपेक्षित कर दी गई हैं
सत्ता से उतरे सत्ताधीश की भाँति
आते-जाते कुछ राहगीर
अभी-भी जोड़ देते हैं हाथ श्रद्धावश
तब क्या इन्हें भी मिलती होगी
उतनी ही खुशी
जितनी कि मिलती है
स्वयं को उपेक्षित महसूसते
वृद्ध पिता को
लंबे अरसे बाद अपने बेटे की चिट्ठी पाकर

- लक्ष्मीशंकर वाजपेयी।
-------------------------

शुक्रवार, 29 मार्च 2024

एक माँ की डायरी

तुम हँसती हो
हँस उठता है मेरा सर्वांग

तुम्हारी उदासी
बढ़ा देती है मेरी बेचैनियाँ

तुम उड़ती हो
उड़ जाता है मेरा मन
आकाश की खुली बाँहों में बेफ़िक्री से

तुम टूटती हो
टूट जाता है मेरा अस्तित्व
भड़भड़ाकर

तुम प्रेम करती हो
भर जाती हूँ मैं
गमकते फूलों की क्यारियों से

तुम बनाती हो
अपनी पहचान
लगता है
मैं फिर से जानी जा रही हूँ

तुम लिखती हो कविताएँ
लगता है
सुलग उठे हैं
मेरे शब्द 
तुम्हारी क़लम की आँच में 

- अनुप्रिया।
------------

गुरुवार, 28 मार्च 2024

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ 
प्रिय मिलने का वचन भरो तो! 

पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ 

फूट पड़े पतझर से लाली 
तुम अरुणारे चरन धरो तो! 

रात न मेरी दूध नहाई 
प्रात न मेरा फूलों वाला 
तार-तार हो गया निमोही 
काया का रंगीन दुशाला 

जीवन सिंदूरी हो जाए 
तुम चितवन की किरन करो तो! 

सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आजूँ अँधियारी
युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर 
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी 

साँसों की ज़ंजीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो!

- भारत भूषण।
----------------

बुधवार, 27 मार्च 2024

उड़ान शेष है

कुछ ही डग भरे, अभी तो उड़ान शेष है
प्रत्यक्ष युग ने देखा, अनुमान शेष है।

जो बहा चले संग में, तुम पवन निराली
सुगंधित समीर का वह अभियान शेष है।

रवि-रश्मि बाँध पाए, नहीं ऐसी गठरी
सतरंगी इंद्रधनुष का वितान शेष है।

सो ना सकोगे तुम भी, मैं न सो सकी तो।
अभी मेरा मानदेय, अनुदान शेष है।

संकल्पों की लेखनी अब नहीं थकेगी।
बंधन जो तोड़ दिए, विधि-विधान शेष है।

- कविता भट्ट।
---------------

मंगलवार, 26 मार्च 2024

तुम्हारी ही आमद है

यह परीक्षाओं का
ऊब और धूल भरा
मौसम हुआ करता था

उदास सुबह
थकी दोपहरी
घबराई शाम
चिंतातुर रातें
यही सब परिचित हुआ करते थे
इस मौसम के

इसकी हवाएँ
काव्यरूढ़ि भर थीं
बिना छुए
गुज़र जाया करती थी!

तुम्हारी ही आमद है
कि अब यह फागुन है

- कुमार सौरभ।
----------------

सोमवार, 25 मार्च 2024

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे

नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।

- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'।
------------------------------


विडियो हिंदी कविता से साभार।


रविवार, 24 मार्च 2024

मुखड़ा हुआ अबीर

मुखड़ा हुआ अबीर लाज से
अंकुर फूटे आस के।
जंगल में भी रंग बरसे हैं
दहके फूल पलाश के।

मादकता में डाल आम की
झुककर हुई विभोर है।
कोयल लिखती प्रेम की पाती
बाँचे मादक भोर है।

खुशबू गाती गीत प्यार के
भौंरों की गुंजार है।
सरसों ने भी ली अँगड़ाई
पोर-पोर में प्यार है।

मौसम पर मादकता छाई
किसको अपना होश है।
धरती डूबी है मस्ती में
फागुन का यह जोश है।

- रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु'।
-----------------------------

शनिवार, 23 मार्च 2024

ताज़े गुलाब का उन्माद

मैंने गुलाब को छुआ
और उसकी पंखुड़ियाँ खिल उठीं
मैंने गुलाब को अधरों से लगाया
और उसकी कोंपलों में ऊष्मा उतर आई।

गुलाब की आँखों में वसंत था
और मेरी आँखों में उन्माद
मैंने उसे अपने पास आने का आह्वान दिया
और उसने
अपने कोमल स्पर्श से मेरी धमनियों में
स्नेह की वर्षा उड़ेल दी।

अब गुलाब मेरे रोम-रोम में है
मेरे होठों में है
मेरी बाहों में है
और उसकी रक्तिम आभा
आकाश में फैल गई है

और
बिखेर गई है मादक सुगंध 
अवयवों में
और उगते सूरज की मुस्कुराहट में।

 - जगदीश चतुर्वेदी।
---------------------

शुक्रवार, 22 मार्च 2024

तितली का सपना

तितली में बसा होता है सपना
या सपने में तितली? 

तितली में 
उड़ती है एक मासूम बच्चे की मुस्कान 
बच्चे की मुस्कान को छूकर 
चकित हर्ष के कोमल पंखों को फड़फड़ाते 
उड़ जाती नीले आसमान में तने 
इंद्रधनुष की ओर 

बिखेरते हुए प्रकृति में 
रंगों की अद्वितीय छटा।

- उद्भ्रांत।
-----------

गुरुवार, 21 मार्च 2024

कहीं चंदन महकता है कहीं केसर महकता है

कहीं चंदन महकता है कहीं केसर महकता है
ये ख़ुशबू है बुज़ुर्गों की जो मेरा घर महकता है

वो अपनी झुर्रियों वाली हथेली में दुआ भर कर
जो छू देते हैं मेरा सर तो मेरा सर महकता है

अगरबत्ती के जैसा हो गया है दिल हमारा अब
वो अपने देवता के सामने जल कर महकता है

तुम्हारे शहर में अब तो बहारें भी हुई बासी
हमारे गाँव आ जाओ यहाँ पतझड़ महकता है

मिरे इस जिस्म की अपनी कोई ख़ुशबू नहीं लेकिन
महकता हूँ मैं इस कारन मिरा दिलबर महकता है

सड़क पर ठोकरें दुनिया की वो खाता रहा बरसों
उसे मंदिर में जब रक्खा वही पत्थर महकता है

तिरा भीगा बदन इक दिन नज़र से छू लिया मैं ने
उसी दिन से मिरी आँखों का हर मंज़र महकता है

- चंद्र शेखर वर्मा।
------------------

बुधवार, 20 मार्च 2024

एक दिन

सूरज एक नटखट बालक सा
दिन भर शोर मचाए
इधर-उधर चिड़ियों को बिखेरे
किरणों को छितराए 
कलम, दरांती, बुरुश, हथोड़ा
जगह-जगह फैलाए
शाम
थकी हारी माँ जैसी
एक दिया मलकाए
धीरे-धीरे सारी
बिखरी चीजें चुनती जाए।

 - निदा फ़ाज़ली।
-----------------

मंगलवार, 19 मार्च 2024

हँसी का रंग हरा होता है

हँसी का रंग हरा होता है 
जहाँ-जहाँ भी हरापन है 
तेरे ही खिलखिलाने की अनुगूँज है वहाँ-वहाँ 

कल्पना का रंग होता है आसमानी 
जहाँ तक पसरा हुआ है आसमान 
तेरी कल्पनाओं के दायरे में आता है... 

ज़िद का रंग होता है बहुत गहरा 
इतना कि एक बार जिस चीज़ की रट लगा लेती है तू 
हमारी किसी भी समझाइश का रंग 
चढ़ता ही नहीं उस पर 

और रोने का रंग...? 
वह तो किसी रंग जैसा 
होता ही नहीं 
क्योंकि जब रोती है तू 
रंगों के चेहरे पड़ जाते हैं फीके 

रंग जो हमेशा 
भरपूर चटखीलेपन में 
जीना चाहते हैं 
चाहते हैं पृथ्वी भर हरापन 

क्योंकि तेरी हँसी का रंग 
हरा होता है।

- हेमंत देवलेकर।
------------------

सोमवार, 18 मार्च 2024

मित्र राग में सोचते हुए

वे बेशक सजा लें अपने तोपख़ाने 
और हमारी ज़िंदगी को 
अपनी मर्ज़ी का ग़ुलाम बना लें 
मुझे यक़ीन है 
कि दोस्त साथ होंगे अगर 
तो मैं पृथ्वी को 
नष्ट होने से अंततः बचा लूँगा
दुनिया की बेशतर आबादी 
फ़िलहाल जबकि 
ज़िंदा बची रहने के लिए 
बंकरों की मोहताज है 
मैं दोस्तों के 
पुराने ख़त पढ़ता हुआ 
किसी भी मौसम में बेख़ौफ़ घूमता हूँ 
इस दौर का 
सबसे क्रूर खलपुरुष 
सरेबाज़ार मुस्कुराता हुआ घूमता है 
सिर्फ़ इसलिए 
क्योंकि न्यायाधीश उसका मित्र है 
दोस्त हमारी सभ्यता के 
सबसे पुराने प्रतीक चिह्न हैं 
और दोस्ती आत्मनिर्वासन के दिनों में 
हमारी सबसे महफूज़ पनाहगाह 
इस धरती पर सिर्फ़ दोस्त ही होते हैं 
जो हमें प्रेम करने से नहीं रोकते 
आप चाहें न मानें लेकिन बरसों-बरस 
ज़िंदगी के बेहद ख़िलाफ़ दिन 
सिर्फ़ दोस्ती गुनगुनाते हुए तय किए हैं मैंने 
और अक्सर यह सोचा है 
दोस्त न होंगे अगर तो कैसे बचेगी पृथ्वी!

- प्रभात मिलिंद।
------------------

शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

रियायत

रसोईघर में एकदम ठीक अनुपातों में ज़ायके का ख़्याल
कि दाल में कितना हो नमक 
कि सुहाए पर चुभे नहीं,
कितनी हो चीनी चाय में
कि फीकी न लगे और ज़बान तालु से चिपके भी नहीं 

इतने सलीके से ओढ़े दुपट्टे
कि छाती ढकी रहे
पर मंगल सूत्र दिखता रहे;
चेहरे पर हो इतना मेकअप 
कि तिल तो दिखे ठोड़ी पर का 
पर रात पड़े थप्पड़
का सियाह दाग छिप जाए

छुए इतने ठीक तरीके से कि पति स्वप्न में भी न जान पाए
कि उसके कंधे पर दिया सद्य तप्त चुंबन उसे नहीं दरअसल उसके प्रेम की स्मृति के लिए है

इतनी भर उपस्थिति दिखे कि 
रसोईघर में रखी माँ की दी परात में उसका नाम लिखा हो 
पर घर के बाहर नेमप्लेट पर नहीं, 
कि घर की किश्तों की साझेदारी पर उसका नाम हो 
पर घर गाड़ी के अधिकार पत्रों पर कहीं नहीं

कुछ इतना सधा और हिसाब से है स्त्री मन 
कि कोई माथे पर छाप गया है 
तिरिया चरित्रम....  
जिसे देवता भी नहीं समझ पाते, मनुष्य की क्या बिसात!
 
और इस तरह स्त्री को 
'मनुष्यों' की संज्ञा और श्रेणी से बेदखल कर दिया गया है

इतनी असह्य नाटकीयता 
और यंत्रवत अभिनय से थककर,
इतने सारे सलीकों, तरतीबी और सही हिसाब के मध्य

एक स्त्री थोड़ा-सा बेढब, बे-सलीका हो जाने 
और बे-हिसाब जीने की रियायत चाहती है....  

सपना भट्ट।
------------

विजया सती के सौजन्य से 

शुक्रवार, 23 फ़रवरी 2024

विदा

तुम चले जाओगे
पर थोड़ा-सा यहाँ भी रह जाओगे

जैसे रह जाती है
पहली बारिश के बाद
हवा में धरती की सोंधी-सी गंध
भोर के उजास में
थोड़ा-सा चंद्रमा
खंडहर हो रहे मंदिर में
अनसुनी प्राचीन नूपुरों की झंकार।

तुम चले जाओगे
पर थोड़ी-सी हँसी
आँखों की थोड़ी-सी चमक
हाथ की बनी थोड़ी-सी कॉफी
यहीं रह जाएँगे
प्रेम के इस सुनसान में।

तुम चले जाओगे
पर मेरे पास
रह जाएगी
प्रार्थना की तरह पवित्र
और अदम्य
तुम्हारी उपस्थिति,
छंद की तरह गूँजता
तुम्हारे पास होने का अहसास।

तुम चले जाओगे
और थोड़ा-सा यहीं रह जाओगे।

- अशोक वाजपेयी।
---------------------

विजया सती की पसंद 

गुरुवार, 22 फ़रवरी 2024

पहला आंदोलन

पहला आंदोलन-
शायद बीज ने किया होगा
मिट्टी के विरुद्ध
और फूट पड़ा होगा
पौधा बनकर।

या फिर शिशु ने-
कोख़ के भीतर किया होगा
जन्म लेने के लिए।

हर बार-
आंदोलनकारी को प्रेम मिला है,
मिट्टी से भी,
और माँ से भी।

क्योंकि-
माँएं जानती हैं, 
कि आंदोलन के बगैर,
सृजन संभव नहीं।

- अशोक कुमार।
-----------------

विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 21 फ़रवरी 2024

एक सूर्य डूबा

दिन यों ही बीत गया! 
अंजुरी में भरा-भरा जल जैसे रीत गया। 

सुबह हुई 
तो प्राची ने डाले डोरे 
शाम हुई पता चला 
थे वादे कोरे 
गोधूलि, लौटते पखेरू संगीत गया। 
दिन यों ही बीत गया! 

रौशन 
बुझती-बुझती शक्लों से ऊबा 
एक चाय का प्याला 
एक सूर्य डूबा 
साँझ को अँधेरा फिर एक बार जीत गया। 
दिन यों ही बीत गया! 

आज का अपेक्षित सब 
फिर कल पर टाला 
उदासियाँ मकड़ी-सी 
तान रहीं जाला 
तज कर नेपथ्य कहाँ, बाउल का गीत गया। 
दिन यों ही बीत गया!

- उमाकांत मालवीय।
-----------------------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2024

पर आँखें नहीं भरीं

कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

सीमित उर में चिर-असीम
सौंदर्य समा न सका
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग
मन रोके नहीं रुका
यों तो कई बार पी-पीकर
जी भर गया छका
एक बूँद थी, किंतु,
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी
कण-कण में बिखरी
मिलन साँझ की लाज सुनहरी
ऊषा बन निखरी,
हाय, गूँथने के ही क्रम में
कलिका खिली, झरी
भर-भर हारी, किंतु रह गई
रीती ही गगरी।
कितनी बार तुम्हें देखा
पर आँखें नहीं भरीं।

- शिवमंगल सिंह ‘सुमन’।
-------------------------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 12 फ़रवरी 2024

किताबें

प्रेम में 
सिर्फ़ फूल मत देना 
देना किताबें भी 
किताबें जिनके बीच 
रखा जा सके सुरक्षित 
सूखते फूल को 

किताबें सिर्फ़ 
फूल नहीं बचातीं 
खो जाने से 
वे बचा लेती हैं 
प्रेम की 
विस्मृति भी

- गौरव गुप्ता।
--------------

संपादकीय चयन 

रविवार, 11 फ़रवरी 2024

यौवन

मुझे दिख गया वह 
कल चौराहे पर 
भरी दुपहरी में 
झिझका, ठिठका 
दिग्भ्रमित-सा खड़ा 
सड़क पार करने की 
कोशिश करता हुआ 
मैंने पीछे से 
कंधे पर हाथ रखकर 
पूछा आत्मीयता से 
भाई, नए आए हो?
जाना कहाँ है?
कोई पता हो तो बताओ 
मैं करूँ सहायता ढूँढ़ने में 

चौंक कर बोला वह 
क्यों करना चाहते हो 
तुम मेरी मदद 
मैं तो खड़ा हूँ यहाँ 
न जाने कब से 
अब तक तो लोग 
बस गुज़रते गए हैं 
मुझे देखते हुए मुस्कुराकर 
मालूम नहीं मुझको स्वयं 
मैं यहाँ आया कब और कहाँ से 
समय ने लाकर 
छोड़ दिया मुझे इस चौराहे पर 
लेकिन तुम कौन हो 
यूँ मुझसे पूछते मेरा हाल? 

शांत भाव से 
उत्तर दिया मैंने 
मैं हूँ तुम्हारा बचपन 
जिसे ढूँढ़ने खड़े हो तुम यहाँ। 

इससे पहले 
कि वह पकड़ पाता 
मेरा हाथ 
मैं तेज़ी से लपककर 
जीवन के महानगर की 
अपार भीड़ में 
खो गया!

- अजीत रायज़ादा।
--------------------

संपादकीय चयन 

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

शहर और गाय

मैं नहीं जानता 
चरागाहों से शहर तक 
गायों की लंबी यात्रा के लिए 
किसने बनवाई सड़कें? 
कौन कर रहा ग़ायब 
पृथ्वी से उनके हिस्से की घास? 

मैं यह भी नहीं जानता 
किसने उड़ाई यह अफ़वाह 
कि शहर के पास 
घास उगा लेने की ताक़त है। 

घासों की तलाश में 
पूरे कुनबे के साथ 
वे निकल पड़ीं 
उस रास्ते पर 
जो जाता था 
शहर की ओर। 

वहाँ भूख की सींगों ने 
तोड़ दिया उनका सारा भ्रम, 
वे तलाशने लगीं 
अपने गाँव-घरों और चरागाहों के रास्ते, 
पर बंद थे सारे रास्ते 
ऊँची इमारतों से। 

सड़कों पर पड़ी उदास 
वे शामिल हो गईं 
बच्चों की टोलियों में, 
टोलियाँ जो भोर होते ही 
चुनने लगती हैं प्लास्टिक कचरे से। 

बच्चों के नन्हे हाथों के बीच 
कचरे के ढेर में फँसा है अब 
उनका मुँह भी। 

सड़क पर बेतहाशा भटकती हुए 
उन्होंने पहली बार देखा 
शहर में इंसान टाँग रहे हैं 
इंसानों को पेड़ पर 
और पहली बार जाना 
शहर के पास 
घास उगाने की कोई ताक़त नहीं। 

सिहर उठी गायें धड़ाम से 
बैठ गईं सड़क पर 
और तब से बैठी हैं 
शहर के बीचों-बीच 
किसी धरने की तरह, 
यह माँगते हुए कि 
वे लौट जाना चाहती हैं 
अपनी घास के पास, 
कि वे जाना चाहती हैं 
जीवित चरागाहों तक 
जो अब भी कहीं उनके इंतज़ार में हैं, 
कि वे गुम हो जाना चाहती हैं 
उन जंगलों में 
जहाँ पेड़ और पत्ते तो बहुत होंगे 
पर आदमी को न आती होगी 
किसी आदमी को 
पेड़ पर टाँगने की कला। 

- जसिंता केरकेट्टा।
--------------------

संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

एक कवि की इच्छा

मेरा वश चले तो 
कविताओं में लिखे सारे मेघ 
दे दूँ उस किसान को 
जो ताक रहा है सूखे आसमान को 
बार-बार 

कविताओं में आए 
सारे मुलायम शब्दों को पीसकर 
मैं लगा दूँ किसी मज़दूर की पीठ पर 
जो छिल गई है 
दुपहरी में ढोते-ढोते बोझ 

दो शब्दों के बीच बची 
सुरक्षित जगह दे दूँ 
नींद में ऊँघते किसी बच्चे को 
जो सड़क किनारे 
सपने बिछा रहा है 

सारे स्वतंत्र शब्दों को रख दूँ 
किसी स्त्री की मुट्ठी में 
जो सुबक रही है 
शांत दुपहर में अकेले 
पोंछती हुई आँसू किसी को देखते ही 

मेरा वश चले तो 
लगा दूँ आग 
अपनी सभी कविताओं में 
जिसकी गर्मी से ठिठुरती ठंड की 
एक रात गुज़ार सके कोई।

- गौरव गुप्ता।
---------------

संपादकीय चयन 

गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

मुकुट

सम्राट एडवर्ड अष्टम ने उतार फेंका था इसे
दरअसल यह
प्रेमिका के साथ सिर जोड़कर बतियाने में आड़े आता था
और प्रेमिका भी
रानी नहीं थी कोई कि पटरानी बनने की चाह में
मुकुट से प्यार करती
साधारण स्त्री थी और सचमुच ही एडवर्ड से प्यार करती थी

बुद्ध और महावीर ने ठोकरों पर उछाल दिया था इसे
वे दुख का कारण जानना चाहते थे
और दुख के कारण का पता
आदमी के पास आदमी की तरह जाने से चलता है

सुनते हैं कि विक्रमादित्य
भटकता था रात-बिरात
गली कूचों मुहल्लों में
अपना मुकुट उतारकर
उसका शासन श्रेष्ठ बताया जाता है

और गाँधी ने तो इसे पहना ही नहीं
उन्हें अपनी आत्मा के गहने इतने प्रिय थे
कि मुकुट धारण करने का खयाल तक हिंसा लगता था
वे इसकी तरफ़ देखकर
एक मासूम बच्चे की तरह मुस्कुराते थे
पूणी कातते थे
चरखा चलाते थे
बकरियों को चारा खिलाते थे

- विनोद पदरज।
----------------

विजया सती के सौजन्य से 

बुधवार, 7 फ़रवरी 2024

दूब

देखो न! 
सारा संसार 
समझ की हिमपात से 
ठिठुर रहा है 

कहीं भी तो 
कोई संकेत 
रहा नहीं शेष 
जीवन का! 

आओ कि 
तुम अपनी नासमझी की 
एक दूब उगाओ 

संसार को फिर से 
हरा-भरा बनाओ।

- मेधा।
-------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

यादें

उसने दरवाज़ा खोला 
और देखा

कमरे में हर ओर धूल से अधिक 
यादें पसरी हुई थीं 
मन ही मन उसने एक आह भरी 
और सोचा 

काश! 
हम यादों को भी धूल की तरह झाड़ सकते!

- दीपक सिंह।
------------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

धीरे-धीरे उपन्यास

ये शहर 
कोई पुरानी कविता है 
प्रेम की 

रेलगाड़ी मुझे बार-बार 
एक कविता में लाकर छोड़ देती है 
रेलगाड़ी के भीतर बैठा, देखता हूँ 
कि बाहर स्टेशन पर न जाने कबसे 
मैं अपनी ही प्रतीक्षा में खड़ा 
बस भीगता जाता हूँ 

यहाँ बारिश को याद हैं 
सारी कहानियाँ हमारी 
दिल्ली वाली 

मुझसे कहती है देखो...
ये बूँद-बूँद मेट्रो है 
और क़िस्सा-क़िस्सा क़ुतुब मीनार 
कहती है कि अब भी एक प्रेयसी 
हाथ पकड़ तुम्हारा 
भटकती है गलियों में दिल्ली की 
और यहाँ गूँजती है तुम्हारी आवाज़ में 
शायरी ग़ालिब की अब भी 
जानती हो 
ये जो पुरानी कविता है न प्रेम की 
अब धीरे-धीरे उपन्यास होती जा रही है

- सौरभ अनंत।
----------------

संपादकीय चयन 

रविवार, 4 फ़रवरी 2024

एकांत

तुमने जो समर्पित किया 
वह अंधकार में 
दीपक की भाँति है 
तुम्हारे प्रकाश में 
रहूँगा प्रकाशित 
एकांत में!

- अभिषेक जैन।
-----------------

संपादकीय चयन 

शनिवार, 3 फ़रवरी 2024

देह की कील से बँधी घर बाहर स्त्री

बड़ी चालाकी से
ठोक दिया
दीवार पर

कैलेंडर में
टाँग दिए
व्रत उपवास
चंद्र और
सूर्यग्रहण
वार्षिक फलादेश

गैस बदलने और
धोबी का हिसाब
दूधिया और
पेपर का नागा

जब भी फड़फड़ाया
पन्ना
बंद कर दिए
खिड़की दरवाज़े 

ऊपर से
टाँग दिए
कमीज़ 
बेल्ट
बच्चों के मेडल

भर दिया
दायित्व बोध के
गुमान से

बदले 
मौसम महीने और
साल
नहीं बदली
नियति

कील सी टँगी
स्त्री की ज़िंदगी 
समाज में 

देह से बँधी
घर बाहर 
स्त्री।

अनिता।
-------

विजया सती की पसंद 

शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2024

दफ़्तर में धूप

खिड़कियों से आती धूप को 
ग़ौर से देखो वसुधा 
टाइपराइटर पर 
तुम्हारी उँगलियों के अलावा 
धूप भी गिर रही है 
लगातार 
तुम्हारे कंधों से फिसलती हुई 

धूप पर नज़र रखो 
कि वह प्रेमपत्र ही टाइप करने लगे 
तो डाँट किसे पड़ेगी 
वह नौकरी तो नहीं करती तुम्हारी तरह 
वह तो छुप जाएगी अभी 
आसमान में 
भटकते बादल के किसी टुकड़े के पीछे 

धूप पर नज़र रखो सिर्फ़ 
उससे बात नहीं करना 
वह तुम्हारी सहेली नहीं 
धूप है 

धूप जाड़े की 
आराम से पसरती हुई 
केबिन में 

छुट्टी का दिन होता 
तो रज़ाई-गद्दे ही सुखा लेती 
घर के 
तुम्हारे ये काम हो जाते 
इस धूप में 

दफ़्तर का दिन है 
तो धूप पर नज़र रखो सिर्फ़ 

धूप 
तुम्हारे कंधों से 
फिसलती हुई 
टाइपराइटर पर 
गिर रही है 
लगातार...

- राजेंद्र शर्मा।
-------------

संपादकीय चयन 

गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

पत्नी

वह तुमको देखते ही दौड़ती नहीं तुम्हारी तरफ़
न तपाक से चूमती है तुमको
न तुम्हारा हाथ, हाथ में लेकर चलती है
न ऐसे पत्र लिखती है जिसमें आहें और उसांसे हों
वह प्रेमिका नहीं, तुम्हारी पत्नी है
जो तुम्हारे तुम की एवज में तुम्हें आप कहती है 

उसकी बातों में खुद के माता पिता भाई बहन
तुम्हारे माता पिता भाई बहन होते हैं
वह हर बात बच्चों से शुरू करती है और उन्हीं पर खत्म
और तुम्हें लगता है
वह तुम्हें प्यार नहीं करती

पर वह सदैव तुम्हारे भले की कामना करती है
उसकी आत्मा की गहराई में तुम्हारा संगीत बजता है
तुम्हारी अनुपस्थिति में वह सो नहीं पाती
वह अदृश्य हवा है जिसमें तुम साँस लेते हो
वह परिंडे का जल है जिसे तुम पीते हो
वह वाचाल चकाचौंध नहीं धीमा उजास है
वह गरणाती गंध नहीं भीनी सुवास है
वह उच्छल तरंग नहीं मंथर बहाव है
ऊपर-ऊपर ठंडा भीतर गुनगुना 
आह्लादकारी

हाँ, जब कभी वह बहुत ख़ुश होती है और अकेली-तुम्हारे पास
वह तुम्हें बाथ में भरकर चूम लेती है
और तुम उसे हैरत से देखते हो देर तक, अवाक

- विनोद पदरज।
-----------------

विजया सती की पसंद 

बुधवार, 31 जनवरी 2024

प्रायश्चित

जब किसी का हक़ खाना, 
एक बार यहाँ भी हो आना 
जहाँ रहती थाली ख़ाली है, 
कानों में सींक की बाली है 
भट्ठों के कमेरा बच्चे, 
इनसे कहीं ईंट में लाली है 
यहाँ टूटे-फूटे रस्ते होंगे, 
पर मुश्किल नहीं पहुँच पाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

ये अपने ही देश में बसते हैं 
जीवन बेज़ार और सस्ते हैं 
ककड़ी माफ़िक फटे होंठ 
दर्द छिपाकर हँसते हैं 
जब विदेश घूमकर आए हो 
फिर मुश्किल नहीं यहाँ पहुँच पाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

जब जेब तुम्हारी हरी-भरी हो 
घर में दूध और दही पड़ी हो 
जब तुम्हारे लालच के आगे 
कोई बेवा बेबस, लाचार पड़ी हो 
जब दो कौड़ी का हो जाए ज़मीर 
और बेईमान हो जाओ सोलहो आना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

जब आध्यात्म की माई पहाड़ चढ़े 
पत्थर पर कपूर की धार चढ़े 
इंसान भले रहे भूखा-नंगा 
मलमल का चद्दर मज़ार चढ़े 
बेशक़ बेशर्मी निज स्वार्थ लिए 
मंदिर में एक दीया जलाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना 
जब किसी का हक़ खाना।

- बच्चा लाल 'उन्मेष'।
-----------------------

संपादकीय चयन 

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

किवाड़

मैं माँ की नज़र से 
किवाड़ को कभी नहीं देख सका 

माँ अक्सर रेल 
और किवाड़ से बातें करती थी 
ऋतु कोई भी हो 
किवाड़ की एक ख़ास दस्तक पर ही 
बेला महकती थी 

और फिर आँखों में रह जाता था 
साल भर पतझड़ 
अगली दस्तक की इंतज़ार में...

- आलोक आज़ाद।
--------------------

संपादकीय चयन 

सोमवार, 29 जनवरी 2024

पिताजी और चौबीस इंच की साइकिल

पिता की बढ़ती उम्र के साथ-साथ 
साइकिल बूढ़ी होती गई
और पिता का प्रेम बढ़ता गया 
सचमुच इतना प्रेम 
कि पैदल होने के बाद 
साइकिल पिता के साथ
पैदल हो जाती है आज भी 
जी हाँ, 
मैंने पिता की साइकिल को 
पैदल चलते देखा है। 

मान्यता ऐसी है कि 
साइकिल के साथ पिता का पैदल होना 
अथवा पिता के साथ साइकिल का पैदल होना 
अब फलाने के पिताजी की पहचान है।

यक़ीनन पिता का प्रेम 
जितना अपने बच्चों से है 
उतना ही 
चौबीस साल पुरानी 
साइकिल से भी।

सचमुच 
साइकिल चलाते हुए पिताजी 
हमेशा जवान दिखते हैं। 
पिता की साइकिल को 
गाँव का हर आदमी 
पहचानता है। 

साइकिल में करियर और स्टैंड के न होने के साथ-साथ 
घंटी का ख़राब होना
पिता की साइकिल होना है। 

महज़ कहने भर के लिए 
पिताजी साइकिल से चलते हैं 
और साइकिल पिताजी से... 

सच तो यह है कि 
पिताजी और साइकिल 
दोनों पैदल चलते हैं। 

सचमुच तुम्हारी साइकिल का पुराना ताला 
उसमें लिपटी हुई जर्जर सीकड़ 
जब हनुमान मंदिर के छड़ों में नाहक जकड़ दी जाती है 
तो बच्चे सवाल करते हैं 
बाबा! बताओ इतनी पुरानी साइकिल को कोई पूछेगा क्या? 

यक़ीनन 
पिताजी को पुराने सामानों को सहेजकर रखने की पुरानी आदत है 
पिताजी सहेजकर रखते हैं कबाड़े को भी 
अपनी पुरानी मान्यताओं के साथ 
इसीलिए पिता की नज़र में 
उनकी साइकिल जवान है, आज भी। 

दुनिया में ऐसे पिता बहुत कम होते हैं 
जिनकी साइकिल को 
पिता के साथ-साथ 
चलाती होगी उनकी तीसरी पुस्त भी 
या चलती होगी किसी पिता की तीसरी पुस्त 
चौबीस इंच की साइकिल से 
आज भी। 

- प्रदीप त्रिपाठी।
-----------------

संपादकीय चयन