भले ही तुम प्रलोभन दो हमें अपनी कृपाओं के,
मगर हम लेखनी का बांकपन बिकने नहीं देंगे।
भले बाग़ी बताओ या हमें फाँसी चढ़ाओ तुम,
मगर हम मौत के डर से सृजन बिकने नहीं देंगे।
वही हमने लिखा है आज तक जो कुछ सहा हमने
भला डर कर किसी भी रात को कब दिन कहा हमने
इसी से हम उपेक्षित रह गए उनकी सभाओं में
न उनके साथ महफ़िल में लगाया कहकहा हमने।
निमंत्रण मिल रहे हैं आज भी सुविधा भरे हमको
मगर तन के लिए खुद्दार मन बिकने नहीं देंगे।
- उर्मिलेश।
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बहुत सुंदर। आज के परिपेक्ष में यह कविता और भी ज़रूरी महसूस होती है।
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