बड़े बेख़ौफ़ होकर आज पंछी डोलते हैं
सदी ख़ामोश बैठी है कि पत्थर बोलते हैं
यही पल है कि जिस पल में हमारे पास बैठो
कि आओ आज हम गिरहें दिलों की खोलते हैं
नहीं मज़हब, नहीं दौलत, न सामाँ की ज़रूरत
मुहब्बत को मुहब्बत की नज़र से तोलते हैं
बहुत से लोग हैं जो अब भी उल्फ़त बो रहे हैं
बहुत से लोग नफ़रत का ही मट्ठा घोलते हैं
सबक़ कोई किताबी याद रहता ही नहीं है
जो सीखा ज़िंदगी से बस वही हम बोलते हैं
जो झूठे हैं, बहुत महफ़ूज़ हैं दुनिया में अपनी
ये सच्चे लोग हैं, जो सर पे आफ़त मोलते हैं
- लक्ष्मण गुप्त।
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