गुरुवार, 18 अप्रैल 2024

यात्री-मन

छल-छलाई आँखों से
जो विवश बाहर छलक आए
होंठ ने बढ़कर वही
आँसू सुखाए
सिहरते चिकने कपोलों पर
किस अपरिभाषित
व्यथा की टोह लेती
उँगलियों के स्पर्श गहराए।

हृदय के भू-गर्भ पर
जो भाव थे
संचित-असंचित
एक सोते की तरह
फूटे बहे,
उमड़े नदी-सागर बने
फिर भर गए आकाश में
घुमड़ कर
बरसे झमाझम
हो गया अस्तित्व जलमय

यात्रा पूरी हुई, लय से प्रलय तक,
देहरी से देह की चलकर, हृदय तक।

एक दृढ़ अनुबंध फिर से लिख गया
डूबते मन को किनारा दिख गया।

- जगदीश गुप्त।
-----------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें