खेत जग पड़े थे
पत्तों से फूट रही थी चैत के शुरू की
हल्की-हल्की लाली
सोचा, मौसम बढ़िया है
चलो तोड़ लाएँ नीम के दो-चार
हरे-हरे छरके
मैं तो उन्हें भूल चुका था
पर मेरे दाँतों को वे अब भी
बहुत याद आते थे
फिर चल दिया अकेला
सुपरिचित मेड़ों और पगडंडियों को
लाँघता-फलाँगता हुआ
पहुँचा गाँव के उस ऊँचे सिवान पर
जहाँ खड़ा था न जाने कितने बरसों से
वह घना-पुराना नीम का पेड़
रुका,
कुछ देर उसे ध्यान से देखा
फिर झुकाई एक डाल
खींच ली एक छोटी-सी हरी छरहरी
काँपती हुई टहनी
बस तोड़ने को ही था
कि अचानक दृष्टि पड़ी नीचे—
अरे, यह कौन?
नीमतले बैठा है
आँख मूँदे मौन!
पड़ गया सोच में
दतुअन तोड़ूँ कि न तोड़ूँ
पकड़े रहूँ कि छोड़ दूँ वह टहनी
जो मेरे हाथ में थी!
अंत में
न जाने क्या आया जी में
कि मैंने एक अजब-सी पीड़ा से
उस तरफ़ देखा
जिधर बैठा था वह आदमी
और छोड़ दी नीम की झुकी हुई टहनी
फिर लौट आया
रास्ते भर ख़ुद से लड़ता और ख़ुद को समझता हुआ
कि यदि कहीं तोड़ ही लेता
कुछ हरी कच्ची उमगती हुई शाखें
तो उसका क्या होता
जो उन्हीं के नीचे बैठा था
उन्हीं के जादू में
बंद किए आँखें!
- केदारनाथ सिंह।
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