मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं

हरी है ये ज़मीं हमसे कि हम तो इश्क बोते हैं
हमीं से है हँसी सारी, हमीं पलकें भिगोते हैं
 
धरा सजती मुहब्बत से, गगन सजता मुहब्बत से
मुहब्बत से ही खुश्बू, फूल, सूरज, चाँद होते हैं
 
करें परवाह क्या वो मौसमों के रुख़ बदलने की
परिंदे जो यहाँ परवाज़ पर तूफ़ान ढोते हैं
 
अजब से कुछ भुलैयों के बने हैं रास्ते उनके
पलट के फिर कहाँ आए, जो इन गलियों में खोते हैं
 
जगी हैं रात भर पलकें, ठहर ऐ सुब्‍ह थोड़ा तो
मेरी इन जागी पलकों में अभी कुछ ख़्वाब सोते हैं
 
मिली धरती को सूरज की तपिश से ये खरोंचे जो
सितारे रात में आकर उन्हें शबनम से धोते हैं
 
लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है
वो कोई और होंगे अपनी क़िस्मत पे जो रोते हैं

- गौतम राजऋषि।
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1 टिप्पणी:

  1. बहुत खूब बहुत शानदार ग़ज़ल है सर

    लकीरें अपने हाथों की बनाना हमको आता है,
    वो कोई और होंगे अपनी किस्मत पे जो रोते हैं।


    बहुत खूब


    सोनम यादव

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