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गुरुवार, 9 जनवरी 2025

इतना ही सीखता हूँ

इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ

इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूलभुलैया में
शाम ढलने तलक
घर की दिशा याद रख सकूँ

इतनी ही सीखता हूँ अँग्रेज़ी
कि देशी अँग्रेज़ों के बीच
स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ

इतना ही पढ़ता हूँ तुझे ज़िंदगी
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ

उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही
जितना सच बचा है
मेरे अंतस में।

- यतीश कुमार
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 12 अगस्त 2024

चाँद के अश्क मीठे

घास का नर्म गलीचा
घर के पीछे
और मन के पीछे तुम

सितारों की तरह टिमटिम
हरी दूब पर असंख्य मोती
दरअसल अपनी ही लिपि के अक्षर हैं
यहाँ समेटने का मतलब बिखरना होता है

मन की ज़मीन पर
मुलायम दूब उग आए हैं
ख़याल के क़दम लिए
उन दूबों पर चलता हूँ

सोचता हूँ तलवों से चिपकी
बूँदों का अब क्या करूँ?
और फिर घबराकर पाँव झट से
समंदर में भिगो आता हूँ

ख़ुश हो लेता हूँ
कि समंदर को
हल्का मीठा चखा दिया

मन के अंदर भी एक समंदर है
लहरें वहाँ भी उमड़ती है
हिचकोले लेती हैं, दिल पर पड़ती है

और फिर बाँध पसीजता है आँखों में
अब यही सोचता हूँ
चाँद के अश्क़ मीठे
और मेरे नमकीन क्यों?

- यतीश कुमार
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से