इतना ही सीखता हूँ गणित
कि दो और दो को
बस चार ही गिन सकूँ
इतनी ही सीखता हूँ भौतिकी
कि रोटी की ज़रूरत के साथ
हृदय की प्रेम तरंगें
और कंपन भी माप सकूँ
इतना ही सीखता हूँ भूगोल
कि ज़िंदगी की
इस भूलभुलैया में
शाम ढलने तलक
घर की दिशा याद रख सकूँ
इतनी ही सीखता हूँ अँग्रेज़ी
कि देशी अँग्रेज़ों के बीच
स्वाभिमान के साथ
अपनी हिंदी भी बचा सकूँ
इतना ही पढ़ता हूँ तुझे ज़िंदगी
कि दीवार पर उभरी
चूल्हे की कालिख में
परतों की उम्र भी पढ़ सकूँ
उकेरता हूँ ख़ुद को उतना ही
जितना सच बचा है
मेरे अंतस में।
- यतीश कुमार
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संपादकीय चयन
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