अदम्य जिजीविषा से भरी है दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ़ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सिर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब
उसे जमने और पसरने को
नहीं चाहिए सिर्फ़ नदी का किनारा
पत्थरों के बीच भी
सिर उठाने की जगह
ढूँढ लेती है दूब
मिट्टी से कितना भी दबा दीजिए
मौक़ा पाते ही
पनप उठती है वह
पसर जाती है
सबको मुँह चिढ़ाते हुए
जमने को अपना अधिकार मानकर
देती आ रही है वह चुनौती
अपने ख़िलाफ़ साज़िश करने वालों को
सृष्टि के आरंभिक दिनों से।
- जितेंद्र श्रीवास्तव
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संपादकीय चयन
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