मृगजल ही सही
हमारा विश्वास गहरा है
लम्हा-लम्हा सूरज बुनने में
हमारी आँखें माहिर हैं
बूँद-बूँद रात पकाने में
हमारे चूल्हे प्रौढ़ हैं
मौसम शहीद हुए तो होने दो
भविष्य कुंभकर्ण-सा सोया है तो सोने दो
जब तक मिट्टी में
सोंधी गंध शेष है
अंजुलियाँ दर्पण बनी हुई हैं
पैर गीतों की कड़ियाँ बने हुए हैं
तब तक
हम
बिरवा-बिरवा खेती करेंगे
तिनका-तिनका किलकारियाँ सँजोएँगे
चप्पा-चप्पा आकाश नापते हुए
हम
सूरजमुखी फूल हो लेंगे
किरण-किरण बादल तलाशते हुए
हम
इंद्रधनुष हो जाएँगे
मृगजल ही सही
हम रेगिस्तान पी जाएँगे
- पद्मजा घोरपड़े
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संपादकीय चयन
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