घास का नर्म गलीचा
घर के पीछे
और मन के पीछे तुम
सितारों की तरह टिमटिम
हरी दूब पर असंख्य मोती
दरअसल अपनी ही लिपि के अक्षर हैं
यहाँ समेटने का मतलब बिखरना होता है
मन की ज़मीन पर
मुलायम दूब उग आए हैं
ख़याल के क़दम लिए
उन दूबों पर चलता हूँ
सोचता हूँ तलवों से चिपकी
बूँदों का अब क्या करूँ?
और फिर घबराकर पाँव झट से
समंदर में भिगो आता हूँ
ख़ुश हो लेता हूँ
कि समंदर को
हल्का मीठा चखा दिया
मन के अंदर भी एक समंदर है
लहरें वहाँ भी उमड़ती है
हिचकोले लेती हैं, दिल पर पड़ती है
और फिर बाँध पसीजता है आँखों में
अब यही सोचता हूँ
चाँद के अश्क़ मीठे
और मेरे नमकीन क्यों?
- यतीश कुमार
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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