मंगलवार, 6 अगस्त 2024

सोच में सीलन बहुत है

सोच में सीलन बहुत है
सड़ रही है,
धूप तो दिखलाइए 
है फ़क़त उनको ही डर
बीमारियों का
जिन्हें माफ़िक हैं नहीं
बदली हवाएँ
बंद हैं सब खिड़कियाँ
जिनके घरों की
जो नहीं सुन सके मौसम
की सदाएँ
लाज़मी ही था बदलना
जीर्ण गत का
लाख अब झुंझलाइए
जड़ अगर आहत हुआ है
चेतना से,
ग़ैरमुमकिन, चेतना भी
जड़ बनेगी
है बहुत अँधियार को डर
रौशनी से,
किंतु तय है रौशनी
यूँ ही रहेगी
क्यों भला भयभीत है पिंजरा
परों से
साफ़ तो बतलाइए
कीच से लिपटे हुए है
तर्क सारे
आप पर, माला बनाकर
जापते हैं
और ज्यादा नग्न
होते है इरादे
जब अनर्गल शब्द उन पर
ढाँकते हैं
हैं स्वयं दलदल कि दलदल
में धंसे हैं
गौर तो फरमाइए

- सीमा अग्रवाल
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संपादकीय चयन 

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