वो हवा वहीं ठहरी है अभी तक
और छूती है रोज़
लगभग रोक लेती हुई-सी
जब गुज़रने लगता हूँ वहाँ से
जहाँ उस दिन गुज़रते फोन आ गया था तुम्हारा
और थोड़ी देर के लिए आस-पास
चंपा के फूल खिल आए थे
अपनी साँसों में समेटते हुए
कई सा हरा रंग ओढ़ लिया था धरती ने
और कोंपलें निकल आई थीं डालियों में
जो प्राण को सुहाना कर देता है
लिपे हुए आँगन-सा
और नए पुआल से सजे घर-सा
जो जुगनुओं से पाट देता है आकाश को
और दूबों से भोर
बौना करके कलह सारा
खुशबू के इस ठहराव और
रंगों के ऐसे रुक जाने के लिए
हवा के ऐसे ठिठक जाने और
रचना की खिलखिलाहट के लिए
तुम्हें, मुझे
और दुनिया के तमाम लोगों को
प्यार करते रहना चाहिए
- प्रकाश देवकुलिश
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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