कोहबर की दीवारों जैसे
मेरे अंतर के आँगन में,
धुँधले से, पर अभी तलक हैं,
छापे माँ तेरे हाथों के।
धुँधले से, पर अभी तलक हैं,
छापे माँ तेरे हाथों के।
कच्चे रंग की पक्की स्मृतियाँ
सब कुछ याद कहाँ रह पाता
स्वाद, खुशबुएँ, गीतों के स्वर
कतरे कुछ प्यारी बातों के।
हरदम एक मत कहाँ हुए हम
बहसों की सिगड़ी में तापी
दोपहरों के ऋण उतने ही
जितने स्नेहमयी रातों के!
छापे माँ तेरे हाथों के
कतरे कुछ प्यारी बातों के!
- शार्दुला झा नोगजा
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
बहुत ख़ूबसूरत कविता!
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