यह देखिए इन पन्नों में
यही वह कविता है जिसने
जगा दी थी बूटों तले रौंद डाले गए ठंडे जिस्मों के भीतर
बेजान पड़ी अंतरात्माएँ।
निकल आए थे लोग चौराहों और सड़कों पर -
अपने कटे-फटे कपड़ों और मैले-कुचैले जिस्मों में ही,
अधफटे, बेपैंदा जूतों और
पानी की पिचकी बोतलों को चप्पलों की तरह पहनकर।
आँखों से मछलियों की तरह उछल रही थीं ज्वालाएँ,
मुँहों से ज्वार की तरह फुफकार रहा था आक्रोश,
भले बेजान थे हाथ - मगर तनी हुई थीं मुट्ठियाँ,
भर्राए हुए गलों में से - मगर
एक संकल्प था जो नारों में तब्दील होकर बदल रहा था
गगनभेदी, साझा चिंघाड़ में।
वैसी ही, जैसी किसी बलवान भैंसे को ज़िबह करते समय सुनाई देती है,
मजबूर जानवर के इस चीत्कार में कि मर जाना मंज़ूर है
लेकिन ख़ारिज करता हूँ तुम्हारी नाइंसाफ़ी।
तभी किसी मरजीवड़े ने उठकर
न जाने कहाँ से जुटा लिए गए जोश के साथ सुनाई थी यही कविता,
जिसे पूरा करने से पहले ही फफक-फफककर रो पड़ा था वह।
याद है मुझे-
"सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" के नारों,
घोड़ों की टापों, धाँय-धाँय की आवाज़ों और
आसपास भरभराकर गिरते लोगों के बीच
पागलों की मानिंद निकल पड़ा था हज़ारों-हज़ार का रेला।
बाद में सुना कि निज़ाम बदल गया है।
अंकलजी- आज भी बैठता हूँ
फुटपाथ के किनारे अख़बारों का ढेर लगाकर।
आज भी आते हैं इक्का-दुक्का लोग।
लेकिन लगता है- अब नहीं छपेंगी वैसी कविताएँ,
उठ खड़े नहीं होंगे लोग,
नहीं जागने वाले हैं अब ज़मीर
कहीं नहीं उठेंगी अस्वीकार के चिंघाड़ की आवाज़ें -
क्योंकि बंद हो गई है वह पत्रिका,
जिसमें कभी छपती थीं ऐसी कविताएँ।
- बालेन्दु शर्मा दाधीच
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद
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