शुक्रवार, 2 अगस्त 2024

सिर्फ़

पात झरे हैं सिर्फ़
जड़ों से मिट्टी नहीं झरी।
अभी न कहना ठूँठ
टहनियों की उँगली नम है।

हर बहार को
खींच-खींचकर
लाने का दम है।
रंग मरे है सिर्फ़
रंगों की हलचल नहीं मरी।

अभी लचीली डाल
डालियों में अँखुए उभरे
अभी सुकोमल छाल
छाल की गंधिल गोंद ढुरे।

अंग थिरे हैं सिर्फ़
रसों की धमनी नहीं थिरी।

ये नंगापन
सिर्फ़ समय का
कर्ज़ चुकाना है
फिर तो
वस्त्र नए सिलवाने
इत्र लगाना है।
भृंग फिरे हैं सिर्फ़
आँख मौसम की नहीं फिरी।

- अनिरुद्ध नीरव
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 

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