शनिवार, 24 अगस्त 2024

काश मैं जीता कुछ दिन

काश मैं जीता कुछ दिन
कुछ न होने के लिए।
कुछ बनने की शर्त को
प्याज के छिलके के साथ
फेंक आता कूड़ेदान में।
और निश्चिंत होकर
लगाता,
सूरज में रौशनी का अनुमान।

रौशनी को भरकर बाल्टी में
उड़ेल आता
दीवार पर बनी
अपनी ही परछाईं पर
और देखता उसे
सुनहला होते।
हवा के बीच कहीं ढूँढ़ता-फिरता
बेफ़िक्र अपने गुनगुनाए गीत
और सहेज लेता कुछ चुने हुए शब्द
अपनी कविता के लिए।

मैं आइने में ख़ुद को देखता
कुछ न होते हुए
और बिखर जाता
जैसे हवा बिखर जाती है
मन-माफ़िक।
आइने में सिमट जाता
ओस की बूँदों-सा
और बदल जाता आईना
दूब के खेत में।

मेरी आँख बंद होती
मुट्ठी की तरह
और जब हथेली खुलती
वो समय होती
बिखर जाती खेतों में
इफ़रात से।

- उमेश पंत
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