लेकर बैठी हूँ कैंची
तराश रही हूँ धागे
फूहड़ लगता है जीवन का
बुना हुआ विस्तार
निकले हों अनावश्यक धागे तो
माना बनाया है,
इन्हीं धागों ने
महीन डिज़ाइन मेरे चेतन-अवचेतन का
मगर फिर भी,
आज लेकर बैठी हूँ कैंची
तराश दूँगी गलती से लगी गाँठे
बेजा आ उलझे रिश्ते
बड़ी हो गई हूँ
समझती हूँ
सच्ची-झूठी छवियों का खेल
बामुश्किल सीखा है, खुद को और
औरों को
‘ना’ कहना
इसीलिए आज लेकर बैठी हूँ कैंची
सहलाती हूँ हाथ से देह
और फैलाती हूँ, हाथ से देह
देखती हूँ कहाँ है वह अतिरिक्त
जो बनाता है, मन को गँठीला
तन को खुरदुरा
कुछ गाँठे अब भी बाकी हैं
खटक रही हैं उँगलियों को
मगर, वे हैं इतनी भीतर
तराशा तो,
उधड़ जाएगा पूरा ताना-बाना
जानती हूँ फिर भी
सजग हो लेकर बैठी हूँ कैंची
देखो, अब पारदर्शी है न
मन का विस्तार
तन का शांत एकसार फैलाव
तराश दिया है
कोना-कोना अब नहीं निकालेगा
कोई मीन-मेख
लेकर बैठी हूँ कैंची!
- मनीषा कुलश्रेष्ठ
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संपादकीय चयन
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