मंगलवार, 9 अप्रैल 2024

औरतें और हम

ये औरतें हैं या कि
ज़िंदगी भर की दुश्वारियाँ
एक पल को न सुकून लेती हैं न लेने देती हैं

भोर में ही उठ जाती हैं
बर्तन खड़खड़ाती हैं
चकिया घिरघिराती हैं (मिक्सी घड़घड़ाती हैं)
झाड़ू खरखराती हैं
फिर भी घुस पुसकर किसी तरह गड़े रहो बिस्तर में तो
नाश्ता लिए सिर पर मँडराती हैं

ये औरतें हैं या कि
घर की चारदीवारियाँ
ख़ुद तो कैद हैं ही 
हमें भी करना चाहती हैं

कहीं जाओ तो जाने का पता पूछती हैं
बता दो तो जाने की वजह पूछती हैं
देर से आओ तो सवाल करती हैं
और अगर न आओ तो बवाल करती हैं
दिनभर बेवजह फोन कर-करके हमारी सलामती पूछती हैं
जब झल्ला जाओ तो माफ़ी माँगती हैं
और फिर अगले दिन वही गलती 
पूरे शिद्दत से दुहराती हैं

ये औरतें हैं या कि
नाचती हुई चकरघिन्नियाँ
ख़ुद को ज़िंदगी भर 
दूसरों की ताल पर नचाती हैं

हमारी खुशी में हमसे ज़्यादा खुश होती हैं
हमारी उदासी में रोती हैं और इर्द-गिर्द मँडराती हैं
हमारे लिए हर तीज त्योंहार उपवास में गँवाती हैं
किसी वजह से अगर हम खाना न खाएँ तो
आगे-पीछे के कई दिनों का हिसाब लगाती हैं और
अपनी ही कोई गलती ढूँढकर पछताती हैं
हमारी सफलता की मुट्ठी भर राई पूरी धरती पर बो आती हैं
हमारी नाकामियों के काँटों को 
अपनी देह की मिट्टी में दबाती हैं, छुपाती हैं

ये औरतें हैं या कि
पागल-सी बदलियाँ
हमारे सूखे दिनों पर बिन कहे बरस जाती हैं

कितनी भी सख़्ती दिखाएँ 
पर एक स्पर्श से पिघल जाती हैं
हम धूप में हों तो ख़ुद को 
छाया में बदलने का जादू दिखाती हैं
हरियाली इनके होने का रंग है
तवज्जो न मिले तो घास बनी रहती हैं
मिल जाए तो नीम पीपल आम बन गछनार हो जाती हैं

ये औरतें हैं या कि
हम एहसानफरामोशों की डायरियाँ
इनको पढ़ो तो बस आइना दिखाती हैं

इनके हर पृष्ठ पर फैली है हमारी उपेक्षा की बदरंग स्याही
हर पंक्ति में बिखरे पड़े हैं हमारी चालाकियों के हर्फ़ 
इनमें पढ़ी जा सकती है हमसे की गई 
और फिर बेमौत मरी उम्मीदों की रुदाली
तलाशा जा सकता है संबंधों का अस्त-पस्त व्याकरण
तितर-बितर औंधी पड़ी सामंजस्य की मात्राएँ
जगह-जगह बाधित प्रेम का अल्पविराम और फिर पूर्णविराम।

- आलोक कुमार मिश्रा।
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विजया सती के सौजन्य से 

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