नयनों के डोरे लाल-गुलाल भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति सँग रति सनेह-रँग घोली,
दीपित दीप, कंज छवि मंजु-मंजु हँस खोली
मली मुख-चुंबन-रोली।
प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस अधर-दशन अनबोली
कली-सी काँटे की तोली।
मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खोली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल, श्रम-सुख की हद हो ली
बनी रति की छवि भोली।
बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल, मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली
रही यह एक ठिठोली।
- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'।
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विडियो हिंदी कविता से साभार।
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