ये ख़ुशबू है बुज़ुर्गों की जो मेरा घर महकता है
वो अपनी झुर्रियों वाली हथेली में दुआ भर कर
जो छू देते हैं मेरा सर तो मेरा सर महकता है
अगरबत्ती के जैसा हो गया है दिल हमारा अब
वो अपने देवता के सामने जल कर महकता है
तुम्हारे शहर में अब तो बहारें भी हुई बासी
हमारे गाँव आ जाओ यहाँ पतझड़ महकता है
मिरे इस जिस्म की अपनी कोई ख़ुशबू नहीं लेकिन
महकता हूँ मैं इस कारन मिरा दिलबर महकता है
सड़क पर ठोकरें दुनिया की वो खाता रहा बरसों
उसे मंदिर में जब रक्खा वही पत्थर महकता है
तिरा भीगा बदन इक दिन नज़र से छू लिया मैं ने
उसी दिन से मिरी आँखों का हर मंज़र महकता है
- चंद्र शेखर वर्मा।
------------------
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें