शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

एक कवि की इच्छा

मेरा वश चले तो 
कविताओं में लिखे सारे मेघ 
दे दूँ उस किसान को 
जो ताक रहा है सूखे आसमान को 
बार-बार 

कविताओं में आए 
सारे मुलायम शब्दों को पीसकर 
मैं लगा दूँ किसी मज़दूर की पीठ पर 
जो छिल गई है 
दुपहरी में ढोते-ढोते बोझ 

दो शब्दों के बीच बची 
सुरक्षित जगह दे दूँ 
नींद में ऊँघते किसी बच्चे को 
जो सड़क किनारे 
सपने बिछा रहा है 

सारे स्वतंत्र शब्दों को रख दूँ 
किसी स्त्री की मुट्ठी में 
जो सुबक रही है 
शांत दुपहर में अकेले 
पोंछती हुई आँसू किसी को देखते ही 

मेरा वश चले तो 
लगा दूँ आग 
अपनी सभी कविताओं में 
जिसकी गर्मी से ठिठुरती ठंड की 
एक रात गुज़ार सके कोई।

- गौरव गुप्ता।
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संपादकीय चयन 

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