सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

धीरे-धीरे उपन्यास

ये शहर 
कोई पुरानी कविता है 
प्रेम की 

रेलगाड़ी मुझे बार-बार 
एक कविता में लाकर छोड़ देती है 
रेलगाड़ी के भीतर बैठा, देखता हूँ 
कि बाहर स्टेशन पर न जाने कबसे 
मैं अपनी ही प्रतीक्षा में खड़ा 
बस भीगता जाता हूँ 

यहाँ बारिश को याद हैं 
सारी कहानियाँ हमारी 
दिल्ली वाली 

मुझसे कहती है देखो...
ये बूँद-बूँद मेट्रो है 
और क़िस्सा-क़िस्सा क़ुतुब मीनार 
कहती है कि अब भी एक प्रेयसी 
हाथ पकड़ तुम्हारा 
भटकती है गलियों में दिल्ली की 
और यहाँ गूँजती है तुम्हारी आवाज़ में 
शायरी ग़ालिब की अब भी 
जानती हो 
ये जो पुरानी कविता है न प्रेम की 
अब धीरे-धीरे उपन्यास होती जा रही है

- सौरभ अनंत।
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संपादकीय चयन 

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