शनिवार, 24 फ़रवरी 2024

रियायत

रसोईघर में एकदम ठीक अनुपातों में ज़ायके का ख़्याल
कि दाल में कितना हो नमक 
कि सुहाए पर चुभे नहीं,
कितनी हो चीनी चाय में
कि फीकी न लगे और ज़बान तालु से चिपके भी नहीं 

इतने सलीके से ओढ़े दुपट्टे
कि छाती ढकी रहे
पर मंगल सूत्र दिखता रहे;
चेहरे पर हो इतना मेकअप 
कि तिल तो दिखे ठोड़ी पर का 
पर रात पड़े थप्पड़
का सियाह दाग छिप जाए

छुए इतने ठीक तरीके से कि पति स्वप्न में भी न जान पाए
कि उसके कंधे पर दिया सद्य तप्त चुंबन उसे नहीं दरअसल उसके प्रेम की स्मृति के लिए है

इतनी भर उपस्थिति दिखे कि 
रसोईघर में रखी माँ की दी परात में उसका नाम लिखा हो 
पर घर के बाहर नेमप्लेट पर नहीं, 
कि घर की किश्तों की साझेदारी पर उसका नाम हो 
पर घर गाड़ी के अधिकार पत्रों पर कहीं नहीं

कुछ इतना सधा और हिसाब से है स्त्री मन 
कि कोई माथे पर छाप गया है 
तिरिया चरित्रम....  
जिसे देवता भी नहीं समझ पाते, मनुष्य की क्या बिसात!
 
और इस तरह स्त्री को 
'मनुष्यों' की संज्ञा और श्रेणी से बेदखल कर दिया गया है

इतनी असह्य नाटकीयता 
और यंत्रवत अभिनय से थककर,
इतने सारे सलीकों, तरतीबी और सही हिसाब के मध्य

एक स्त्री थोड़ा-सा बेढब, बे-सलीका हो जाने 
और बे-हिसाब जीने की रियायत चाहती है....  

सपना भट्ट।
------------

विजया सती के सौजन्य से 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें