दर्द,
उत्पीड़न,
ग़रीबी,
जैसे शब्द नही है उनके शब्दकोश में
ये सब महलों के बाशिन्दे हैं
फिर भी कभी–कभी
कर लेते हैं बात इन मुद्दों पर
भावावेश में हम भी आ जाते हैं
और हार जाती है
हिम्मत हमारी हर बार
वे खेलते हैं
हमारी मूर्छित चेतना से
फिर होश में आने से पहले
बदल जाती है उनकी दुनिया
हम रह जाते अवाक..
हमारे कण्ठ से
नही फूट पाता विद्रोह का एक भी स्वर
ऐसा क्यों ....?
-नित्यानंद गायेन
------------------
संपादकीय चयन
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें