अब इसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम
और घर इतना पुराना भी नहीं चाहते हम
सर भी महफूज़ इसी में है हमारा लेकिन
क्या करें सर को झुकाना भी नहीं चाहते हम
हाथ और पांव किसी के हों किसी का सर हो
इस तरह क़द को बढ़ाना भी नहीं चाहते हम
अपनी ग़ैरत के लिए फ़ाक़ा कशी भी मंज़ूर
तेरी शर्तों पे ख़ज़ाना भी नहीं चाहते हम
आंख जब दी है नज़ारे भी आता कर यारब
एक कमरे में ज़माना भी नहीं चाहते हम
- हसीब सोज़
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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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