शनिवार, 27 सितंबर 2025

अब इसे छोड़ के जाना

अब इसे छोड़ के जाना भी नहीं चाहते हम

और घर  इतना  पुराना भी नहीं चाहते हम

सर भी  महफूज़  इसी में  है  हमारा लेकिन

क्या करें सर को झुकाना भी नहीं चाहते हम

हाथ और पांव किसी के हों किसी का सर हो

इस तरह क़द को बढ़ाना भी नहीं चाहते हम

अपनी ग़ैरत के लिए फ़ाक़ा कशी भी मंज़ूर

तेरी  शर्तों पे  ख़ज़ाना  भी  नहीं चाहते  हम

आंख जब दी है नज़ारे भी आता कर यारब

एक  कमरे  में  ज़माना  भी  नहीं चाहते हम


 -  हसीब सोज़

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- हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से 


 

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