बुधवार, 30 जुलाई 2025

शहर के दोस्त के नाम पत्र

हमारे जंगल में लोहे के फूल खिले हैं

बॉक्साइट के गुलदस्ते सजे हैं

अभ्रक और कोयला तो 

थोक और खुदरा दोनों भावों से 

मंडियों में रोज सजाए जाते हैं


यहाँ बड़े-बड़े बाँध भी

फूल की तरह खिलते हैं

इन्हें बेचने के लिए 

सैनिकों के स्कूल खुले हैं, 

शहर के मेरे दोस्त

ये बेमौसम के फूल हैं

इनसे मेरी प्रियतमा नहीं बना सकती

अपने जुड़े के लिए गजरे

मेरी माँ नहीं बना सकती

मेरे लिए सुकटी या दाल

हमारे यहाँ इससे कोई त्योंहार नहीं मनाया जाता

यहाँ खुले स्कूल

बारहखड़ी की जगह

बारहों तरीकों के गुरिल्ला युद्ध सिखाते हैं


बाजार भी बहुत बड़ा हो गया है

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता

यहाँ से सबका रुख शहर की ओर कर दिया गया है


कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा

उससे पहले नदी गई

अब खबरल फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है


शहर में मेरे लोग तुमसे मिलें

तो उनका ख़याल ज़रूर रखना

यहाँ से जाते हुए उनकी आँखों में

मैंने नमी देखी थी

और हाँ

उन्हें शहर का रीति-रिवाज भी तो नहीं आता

मेरे दोस्त उनसे यहीं मिलने की शपथ लेते हुए

अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ।


- अनुज लुगुन

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-संपादकीय चयन 



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