अजब सफ़र है
मैं अपनी मुट्ठी से रेत बनकर फिसल रहा हूँ
वह रेत दामन में भर रही है
मैं थोड़ा मुट्ठी में रह गया हूँ
मैं थोड़ा दामन में गिर चुका हूँ
मैं बाक़ी दोनों के दरमयाँ हूँ
मुझे यह डर है
मैं ज्यों ही मुट्ठी को खोल दूँगा
वह अपने दामन को झाड़ देगी
-अम्मार इक़बाल
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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