कविता
ज़िंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अँगीठी है
अँगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए
प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का
एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाए
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ
ज़िंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जाएगा
- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से
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