मंगलवार, 22 अगस्त 2023

अनकही

वह कहता था 
वह सुनती थी
जारी था एक खेल
कहने सुनने का 
खेल में थी दो पर्चियाँ
एक में लिखा था ‘कहो’
एक में लिखा था ‘सुनो’ 
अब यह नियति थी 
या महज़ संयोग
उसके हाथ लगती रही 
वही पर्ची
जिस पर लिखा था ‘सुनो’
वह सुनती रही 
उसने सुने आदेश
उसने सुने उपदेश
बन्दिशें उसके लिए थीं
उसके लिए थीं वर्जनाएँ 
वह जानती थी
कहना सुनना नहीं हैं 
केवल हिंदी की क्रियाएँ
राजा ने कहा ज़हर पियो
वह मीरा हो गई
ऋषि ने कहा पत्थर बनो
वह अहिल्या हो गई 
प्रभु ने कहा 
घर से निकल जाओ 
वह सीता हो गई 
चिता से निकली चीख 
किन्हीं कानों ने नहीं सुनी 
वह सती हो गई 
घुटती रही उसकी फरियाद
अटके रहे उसके शब्द
सिले रहे उसके होंठ
रुँधा रहा उसका गला 
उसके हाथ कभी नहीं लगी
वह पर्ची
जिस पर लिखा था - 'कहो'

- शरद कोकास।
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अनुभूति काबरा की पसंद 

8 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर ! भावपूर्ण प्रेरक मारक बेधक ...और क्या कहूं ?

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  2. Wah!! Sharad ji , Yah kavita bahut viral huyi hai, kabhi Amrita preetam to kabhi Mahadevi ke naam se. Aaj pata laga ki yah aapki likhi huyi hai..bahut khoob..👌👌👌👌 abhinandan ..

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  3. बहुत बढ़िया लेखन, हृदय को छू लेती है कविता।

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  4. अति सुन्दर.. नारी जीवन का यथार्थ दर्शाती पंक्तियाँ.. शायद समूची मानव जाति का सच भी यही है.. बातें चाहें जितनी की जाये.. समानता के आंदोलन हों पर वास्तव में यही कल भी सच था.. आज भी है.. 💥

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