बुधवार, 30 अगस्त 2023

बनारस

इस शहर में बसंत 
अचानक आता है 

और जब आता है मैंने देखा है 
लहरतारा या मडुवाडीह की तरफ़ से 
उठता है धूल का एक बवंडर 
और इस महान पुराने शहर की जीभ 
किरकिराने लगती है 
जो है वह सुगबुगाता है 
जो नहीं है वह फेंकने लगता है पचखियाँ
आदमी दशाश्वमेध पर जाता है 
और पाता है घाट का आखिरी पत्थर 
कुछ और मुलायम हो गया है 

सीढ़ियों पर बैठे बंदरों की आखों में 
एक अजीब-सी नमी है 
और एक अजीब-सी चमक से भर उठा है 
भिखारियों के कटोरों का निचाट खालीपन 
तुमने कभी देखा है 
खाली कटोरों में बसंत का उतरना! 

यह शहर इसी तरह खुलता है 
इसी तरह भरता है 
और खाली होता है यह शहर 
इसी तरह रोज़-रोज़ एक अनंत शव 
ले आते हैं कँधे 
अँधेरी गली से 
चमकती हुई गंगा की तरफ़ 

इस शहर में धूल 
धीरे-धीरे उड़ती है 
धीरे-धीरे चलते हैं लोग 
धीरे-धीरे बजते हैं घंटे 
शाम धीरे-धीरे होती है 
यह धीरे-धीरे होना 
धीरे-धीरे होने की एक सामूहिक लय 
दृढ़ता से बाँधे हैं समूचे शहर को 
इस तरह कि कुछ भी गिरता नहीं है 
कि हिलता नहीं है कुछ भी 
कि जो चीज़ जहाँ थी 
वहीं पर रखी है 
कि गंगा वहीं है 
कि वहीं पर बँधी है नाव 
कि वहीं पर रखी है तुलसीदास की खड़ाऊँ
सैकडों बरस से 
कभी सई- सांझ 
बिना किसी सूचना के 
घुस आओ इस शहर में 
कभी आरती के आलोक में 
इसे अचानक देखो 
अद्भुत है इसकी बनावट 
यह आधा जल में है 
आधा मंत्र में 
आधा फूल में है 
आधा शव में 
आधा नींद में है 
आधा शंख में 

अगर ध्यान से देखो 
तो यह आधा है 
और आधा नहीं है 
जो है वह खड़ा है 
बिना किसी स्तंभ के 
जो नहीं है उसे थामे है 
राख और रौशनी के ऊँचे-ऊँचे स्तंभ 
आग के स्तंभ 
और पानी के स्तंभ 
धुँए के 
ख़ुशबू के 
आदमी के उठे हुए हाथों के स्तंभ 
किसी अलक्षित सूर्य को 
देता हुआ अर्घ्य 
शताब्दियों से इसी तरह 
गंगा के जल में 

अपनी एक टांग पर खड़ा है यह शहर 
अपनी दूसरी टांग से
 बिलकुल बेखबर!

- केदारनाथ सिंह।
----------

अनूप श्रीवास्तव की पसंद 

2 टिप्‍पणियां: