बुधवार, 9 अगस्त 2023

हवा-बतास

अम्माँ अक्सर डपट लेती
क्या दनही घोड़ी के लेखे हिनहनाती रहती हो हरदम 
एक तुमहीं लड़की हो इस दुनिया में
या कि तुमसे पहले कोई लड़की थोड़े ही हुई है
और फिर हँसते-हँसते रुआँसी हो जातीं घर की लड़कियाँ
अम्माँ कहती लड़कियाँ हँसती हैं तो हवा -बतास लग जाती है 
जाने वो कौन-सी हवा थी जो,
हदस बनकर अम्माँ के मन में ऐसे बैठी
कि जेठ-बैसाख की निचाट दुपहरिया
अम्माँ मोहारे बँसोला बिछाए निखरहर पड़ी रहती 
वो हौव्वारा बहता कि चमड़ी झौंस उठती 
करवट बदलती तो मूँज की छकड़ी डिजाइन 
अम्माँ की नंगी पीठ पर छप जाती 
चाहे जितना भी अकाज हो
क्या मजाल कि कोई देहरी के बाहर गोड़ रख दे 
लाली, पाउडर, काजल की सख्त मनाही 
इधर लड़कियाँ होठ रंगती, उधर अम्माँ चीखती
होंठ रंगाय के रंडी बनोगी
ढिंगरा बेरावे जा रही लिप्सटिक पाउडर लगा के
और अगर गलती से भी 
दुआरे- पिछवाड़े कोई बिसाती दिख जाए, 
तो दूर तके निकारी लेखे सरहद डँका आती अम्माँ 
मेंहदी के बूटे से खोंटी हुई पत्तियाँ
रात भर भगोने में सपनों-सी भींजती
अम्माँ के अढ़वा डोलाती छुटकी मेल्हाते हुए पूछते 
ऐ दाई, एक हाथे मेंहदी हमहुँ रचाय लेई का ? 
अम्माँ उसकी मुँहजोरई पर गुस्सा हो कहती 
दाई के माई हो
हवा-बतास पिंड पकड़ लेई,
तौ सारी साध बिलाय जाई
और फिर कितने अरमानों को बदरंगा छोड़
सिल की देह ललाने के बाद
पूरा नाबदान रंगती बह निकलती मेंहदी 
जाने वो कौन-सी हवा थी
लग जाती तो
हँसती, खिलखिलाती गाँव की अल्हड़ लड़कियाँ
अगले ही पल अइँठ-बरर जाती 
देखते-देखत चली जाती अललै जान 
धरा रह जाता सब झाड़-फूँक
हवा का असर बता हाथ मल रह जाते 
ओझा, सोखा और वैद्य
बहुत देर हो गई कहकर मुँह फेर लेते डॉक्टर 
पीछे कुछ कनफुसिया उमगती, 
एक दिन, दो दिन 
कोई कहता मुँह से फेचकुर निकल रहा था 
कोई कहता सियाही हो गई थी समूची देह
कोई कहता फक्क सफेद होकर 
उलट गई थी आँख की गोट्टियाँ 
जो जो रही थी उसकी सखी-सहेली
उनको पहना दिए जाते ताबीज में
भालू के बाल, बंदर के दाँत, बाघ की खाल
ऐसी बहुत-सी हँसी मुझे याद है
वो तमाम हवा लगी लड़कियाँ 
मेरे सपनों में आ-आकर हँसती हैं 
गाल भर-भरकर हँसती हैं
आज भी वो हवा लग-लगा जाती है
मेरे गाँव की लड़कियाँ अब कोचिंग जाती हैं,
स्कूटी से स्कूल-कॉलेज जाती हैं
जींस पहनती हैं
मेंहदी, काजल, लिपस्टिक लगाती हैं
मेरे गाँव की लड़कियाँ कबड्डी और क्रिकेट खेलती हैं 
पर आज भी मेरे गाँव की अल्हड़ लड़कियाँ 
हँसती ठठाती अललै मर जाती हैं 
उन्हें आज भी लग जाती है हवा!

-सुशील मानव
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डॉ० जगदीश व्योम की पसंद।

3 टिप्‍पणियां:

  1. वाह। बहुत अच्छी कविता। सुशील मानव जी को पढ़ना हमेशा ही अच्छा लगता है।

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  2. बहुत सुंदर, गांव की सोंधी महक लिए कविता।

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  3. गाँवों में व्याप्त विसंगतियों पर बात करती सुन्दर कविता।

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