रविवार, 31 अगस्त 2025

वसंत

वसंत के दिन थे
जब हम पहली बार मिले

पहली बार
मैंने वसंत देखा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शनिवार, 30 अगस्त 2025

उम्मीद की अँगीठी

कविता
ज़िंदा आदमी के सीने में सुलगती
उम्मीद की अँगीठी है

अँगीठी पर चढ़े पतीले में
मैंने रख धरे हैं
दुनिया भर के दुख, उदासी और चिंताएँ
वाष्पीभूत होने के लिए

प्रेम के धातु से
बनवाया है यह पतीला
दरअसल है नहीं कोई दूसरा धातु
किसी काम का

एक सुंदर दुनिया की उम्मीद में
सुलगते सीने में भरोसे की आग जलाए
लिखता हूँ कविताएँ
क्योंकि मैं ज़िंदा आदमी हूँ

ज़िंदा आदमी
कविता न लिखे
मर जाएगा

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

मौलिकता

सृजन और प्‍यार और मुक्ति की
गतिकी के कुछ आम नियम होते हैं
लेकिन हर सर्जक
अपने ढंग से रचता है,

हर प्रेमी
अपने ढंग से प्‍यार करता है

और हर देश
अपनी मुक्ति का रास्‍ता
अपने ढंग से चुनता है।

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

गुरुवार, 28 अगस्त 2025

कुछ पल

कुछ पल
साथ चले भी कोई
तो क्या होता है
क़दम-दर-क़दम
रास्ता तो
अपने क़दमों से
तय होता है

कुछ क़दम संग
चलने से फिर
न कोई अपना
न पराया होता
बस, केवल
वे पल जीवंत 
और
सफ़र सुहाना होता है

- किरण मल्होत्रा
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

बुधवार, 27 अगस्त 2025

बाहर-भीतर : यह जीवन

मैंने फूल देखे
फिर उन्हीं फूलों को
अपने भीतर खिलते देखा
 
मैंने पेड़ देखे
और उन्हीं पेड़ों के हरेपन को
अपने भीतर उमगते देखा
 
मैं नदी में उतरा
अब नदी भी बहने लगी
मेरे भीतर
 
मैंने चिड़िया को गाते सुना
गीत अब मेरे भीतर उठ रहे थे

यूँ बाहर जो मैं जीया
उसने भीतर
कितना भर दिया!

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी के सौजन्य से

मंगलवार, 26 अगस्त 2025

बेहतर है

मौत की दया पर
जीने से
बेहतर है

ज़िंदा रहने की ख़्वाहिश
के हाथों मारा जाना!

- कात्यायनी
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

सोमवार, 25 अगस्त 2025

हँसी

बहुत कुछ कहती है
भरोसा जगाती हँसी
 
एक बेपरवाह हँसी गढ़ती है
सुंदरता का श्रेष्ठतम प्रतिमान

अर्थ खो देंगे
रंग, फूल, तितली और चिड़िया
एक हँसी न हो तो
 
हँसी से ही
संबंधों में रहती है गर्मी
 
नींद कैसे आएगी हँसी के बिना
प्रेम का क्या होगा?
 
हँसी को तकिया बनाकर
सोता है प्रेम

- कुंदन सिद्धार्थ
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हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद

शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

पोस्ट ऑफिस

 पोस्ट ऑफिस में अब कहाँ टकराते हैं ख़ूबसूरत लड़के 


चिट्ठियाँ गुम होने का बड़ा नुकसान ये भी हुआ है 

‘एक्सक्यूज़ मी..पेन मिलेगा क्या’ जैसा बहाना जाता रहा 

‘आप बैठ जाइए..मैं लगा हूँ लाइन में’ कहने वाले भी कहाँ रहे 

मुए ज़माने ने इतना भर सुख भी छीन लिया 


वो दिन जब लाल पोस्ट बॉक्स जैसे तिलिस्मी संदूक 

और डाकिया जादूगर 

वो दिन जब महीने में डाकघर के चार चक्कर लग ही जाते 

और तीन बार कहीं टकरा ही जाती नज़रें 

बीते दिनों इतना रोमांच काफी था 

कॉलेज की सहेलियों से बतकही में ये बात ख़ास होती-

‘सुन..कल वो फिर दिखा था’

पोस्ट ऑफिस में दिखने वाले लड़के अमूमन शरीफ़ माने जाते 


पार्सल, मनीआर्डर, रजिस्टर्ड पोस्ट, ग्रीटिंग कार्ड 

और भी सौ काम थे 

राशन से कम कीमती नहीं थी चिट्ठियाँ 

एक से पेट भरता दूसरे से मन 

वो दिन जब डाकघर जाना हो तो 

लड़की अपना सबसे अच्छा सूट निकालती 


पोस्ट ऑफिस उन बैरंग चिट्ठियों का भी ठिकाना था 

जो एकदम सही पते पर पहुँचती 

कुछ बेनामी ख़त जो आँखों-आँखों में पढ़ लिए जाते


इन दिनों डाकघर सूने हो गए हैं 

अब आँखों पर भी चश्मा चढ़ गया है


- श्रुति कुशवाहा

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-संपादकीय चयन