ढ़ीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिए
चल पड़ा है, देख, बारिश में नहाने के लिए
चल पड़ा है, देख, बारिश में नहाने के लिए
कुछ सहमती, कुछ झिझकती, गुनगुनाती पौ फटी
सोये जग को भैरवी की धुन सुनाने के लिए
घोंसले में अपने गौरेया है बैठी सोचती
जाए वो किस बाग़ में अमरूद खाने के लिए
पर्वतों पर बर्फ़ के फाहे ठिठुरने जब लगे
चुपके-से घाटी में फिसले खिलखिलाने के लिए
बेहया-सी दोपहर ठिठकी हुई है अब तलक
और ज़िद्दी शाम है बेचैन आने के लिए
नकचढ़ी इक दूब दिन भर धूप में ऐंठी रही
रात उतरी शबनमी उसको रिझाने के लिए
चाँद को टेढ़ा किए मुँह देखकर तारे सभी
आ गये ठुड्ढ़ी उठाए टिमटिमाने के लिए
- गौतम राजऋषि।
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संपादकीय चयन
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