बचपन में माँ को
इक छोटी सी डिब्बी में
ढेर सारे चाँद रखते देखा
अपने माथे पर सजाते देखा
रंग-बिरंगे
गोल
जो कभी आधे नहीं होते थे
छुपते भी नहीं
अब बड़ी हूँ
तो चाँद कभी दीखता है पूरा
कभी आधा
कभी छुप जाता है
रंग भी उड़ा-सा दीखता है
वह डिब्बी जो माँ के पास छूट गई
शायद,
उसमें अब भी कुछ चाँद पड़े होंगे।
नेहल शाह।
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संपादकीय चयन
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