निश्चय ही रोटी का सच
बहुत बड़ा है
पर आदमी होने का सच
उससे भी बड़ा है
मेरी कविता को तलाश है
उस सड़क की
जो रोटी से होकर
आदमी तक जाती है
पर कोई है -
उसकी आँखों पर
पट्टी बाँध देता है
वह जो भी पगडंडी पकड़ती है
थोड़ी दूर जाकर
अंधी गली में तब्दील हो जाती है
जानती हूँ
वे हाथ किसके हैं
और शुरुआत होती है यहीं से
जंग की।
- निर्मला गर्ग।
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संपादकीय चयन
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