शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

चक्रव्यूह

युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर 
जो हज़ारों बार दुहराई गई, 
रक्त की विरुदावली कुछ और रंगकर 
लोरियों के संग जो गाई गई
उसी इतिहास की स्मृति, 
उसी संसार में लौटे हुए, 
ओ योद्धा, तुम कौन हो? 

मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ 
प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित
अपरिचित ज़िंदगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद
बाँधी पंक्तियों को तोड़ 
क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद 
मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया
पिघलती आग-सी संध्या
बदन पर एक फूटा कवच
सारी देह क्षत-विक्षत
धरती-ख़ून में ज्यों सनी लथपथ लाश
सिर पर गिद्ध-सा मँडरा रहा आकाश

मैं बलिदान इस संघर्ष में 
कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर 
जो ज़िंदगी के नाम पर हारा गया
आहूत हर युद्धाग्नि में 
वह जीव हूँ निष्पाप 
जिसको पूज कर मारा गया
वह शीश जिसका रक्त सदियों तक बहा
वह दर्द जिसको बेगुनाहों ने सहा। 

यह महासंग्राम
युग-युग से चला आता महाभारत
हज़ारों युद्ध, उपदेशों, उपाख्यानों, कथाओं में
छिपा वह पृष्ठ मेरा है 
जहाँ सदियों पुराना व्यूह, जो दुर्भद्य था, टूटा
जहाँ अभिमन्यु कोई भयों के आतंक से छूटा 
जहाँ उसने विजय के चंद घातक पलों में जाना 
कि छल के लिए उद्यत व्यूह-रक्षक वीर-कायर हैं, 
जिन्होंने पक्ष अपनी सत्य से ज़्यादा बड़ा माना
जहाँ तक पहुँच उसने मृत्यु के निष्पक्ष, समयातीत घेरे में 
घिरे अस्तित्व का हर पक्ष पहिचाना।

- कुँवर नारायण।
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संपादकीय चयन 

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