रविवार, 22 जून 2025

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है

ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है

जला के शम्अ अब उठ-उठके देखना छोड़ो
वो ज़िम्मेदारी से अज़-ख़ुद पिघल भी सकती है

है शर्त सुब्ह के रस्ते से हो के शाम आए
तो रात उस को सहर में बदल भी सकती है

ज़रा सँभल के जलाना अक़ीदतों के चराग़
भड़क न जाएँ कि मसनद ये जल भी सकती है

अभी तो चाक पे जारी है रक़्स मिट्टी का
अभी कुम्हार की निय्यत बदल भी सकती है

ये आफ़्ताब से कह दो कि फ़ासला रक्खे
तपिश से बर्फ़ की दीवार गल भी सकती है

तिरे न आने की तशरीह कुछ ज़रूरी नहीं
कि तेरे आते ही दुनिया बदल भी सकती है

कोई ज़रूरी नहीं वो ही दिल को शाद करे
'अलीना' आप तबीअत बहल भी सकती है

- अलीना इतरत
------------------

हरप्रीत सिंह पुरी की पसंद 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें