बुधवार, 11 जून 2025

मनाकाश

आज निरभ्र है मनाकाश 
अगणित तारों के अनंत पसार तले
आज बदल सकती हूँ वस्त्र 
आज केवल सतरंगी ओस से ढक सकती हूँ
देह की अनन्य लाज 

आज तुम्हारे स्पर्श से आह्लादित है
गात का तटस्थ जल 
आज प्रतीक्षाओं को दे सकती हूँ
पूर्णता के सारे चमकीले क्षण

आज निर्भय हूँ!
आज चाहूँ तो 
दुख वाले हस्तक्षेपों के उमेठ सकती हूँ कान 
आज मृत्यु को बरजकर द्वार पर रोक सकती हूँ

आज खूब दिनों बाद 
भय और लज्जा के बहुलार्थों से मुक्त है आत्मा
आज रोक सकती हूँ युद्ध
लिख सकती हूँ कविता 

आज अथाह सुख से भरी हैं
देह की सब शिराएँ 

आज निकालकर दे सकती हूँ
तुम्हे अपना हृदय निसंकोच 

चटख लाल, गर्म और लबालब प्रेम से भरा

- सपना भट्ट
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विजया सती के सौजन्य से 

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