मंगलवार, 10 जून 2025

मृत्यु भी प्रबोधन है

सहसा किसी उदात्त क्षण 
धूप का उजला फूल अपनी वेणी में खोंसे 
विहँसती है जीवन की अंतिम साँझ

किसी अतिरेकी क्षण
देह के अंतिम दर्रे को लाँघकर 
आत्मा के सीले अँधेरे में उतरता है प्रभात 

रस छंद और अलंकारों की 
नाटकीयता से ऊबकर 
अचानक कागज़ पर स्याही उलट देता है कवि,
कविता शोक के धवल वस्त्र पहन लेती है

एकाएक असंभव, संभव हो जाता है

मन का मलंग मल्लाह 
मझधार में अकस्मात डुबो देता है नौका 
फेंक देता है पतवार 

प्रतीक्षालय में 
याद की आख़िरी सिगरेट फूँकते 
छूट जाती है प्लेटफॉर्म पर देर से खड़ी रेलगाड़ी 

धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है
मिलन की एषणा, प्रतीक्षा का सौंदर्य;

प्रेय को चूमने की उत्कट चाह 
धीरे से झर जाती है 

पीछे छूटे गझिन विलाप की 
रुआँसी प्रतिध्वनि कहती है 
कि "क्या हुआ जो तुमने किसी को चीह्नने में चूक की"!

सुख में फ्योंली के पीले फूलों को 
किसने वेणी में नहीं खोंसा! 

शोक में काँटों से उलझने का संताप
किसके अँचरे से नहीं बंधा!

जानती हूँ अनित्य है संसार!
और तो और भंगुर है प्रेम की यह मूक यातना भी

फिर भी इतना विलंब नहीं हुआ अभी
कि देह की सब शिराएँ निचोड़कर भी
बिछोह की निषिद्ध ऋतु की साँवली छाया को 
बुराँस के एक लाल फूल में न बदल सकूँ

इतनी संदिग्ध नहीं है बेला 
कि उसी मृदुल फूल को 
अपनी अनुरक्तियों के तमिस्र शवागार में रखकर 
प्रेम के अभीष्ट से मुक्ति की अभ्यर्थना भी न कर सकूँ 

- सपना भट्ट
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विजया सती की पसंद 

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