बुधवार, 31 जनवरी 2024

प्रायश्चित

जब किसी का हक़ खाना, 
एक बार यहाँ भी हो आना 
जहाँ रहती थाली ख़ाली है, 
कानों में सींक की बाली है 
भट्ठों के कमेरा बच्चे, 
इनसे कहीं ईंट में लाली है 
यहाँ टूटे-फूटे रस्ते होंगे, 
पर मुश्किल नहीं पहुँच पाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

ये अपने ही देश में बसते हैं 
जीवन बेज़ार और सस्ते हैं 
ककड़ी माफ़िक फटे होंठ 
दर्द छिपाकर हँसते हैं 
जब विदेश घूमकर आए हो 
फिर मुश्किल नहीं यहाँ पहुँच पाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

जब जेब तुम्हारी हरी-भरी हो 
घर में दूध और दही पड़ी हो 
जब तुम्हारे लालच के आगे 
कोई बेवा बेबस, लाचार पड़ी हो 
जब दो कौड़ी का हो जाए ज़मीर 
और बेईमान हो जाओ सोलहो आना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना। 

जब आध्यात्म की माई पहाड़ चढ़े 
पत्थर पर कपूर की धार चढ़े 
इंसान भले रहे भूखा-नंगा 
मलमल का चद्दर मज़ार चढ़े 
बेशक़ बेशर्मी निज स्वार्थ लिए 
मंदिर में एक दीया जलाना 
यहाँ प्रायश्चित करने ज़रूर आना 
जब किसी का हक़ खाना।

- बच्चा लाल 'उन्मेष'।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 30 जनवरी 2024

किवाड़

मैं माँ की नज़र से 
किवाड़ को कभी नहीं देख सका 

माँ अक्सर रेल 
और किवाड़ से बातें करती थी 
ऋतु कोई भी हो 
किवाड़ की एक ख़ास दस्तक पर ही 
बेला महकती थी 

और फिर आँखों में रह जाता था 
साल भर पतझड़ 
अगली दस्तक की इंतज़ार में...

- आलोक आज़ाद।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 29 जनवरी 2024

पिताजी और चौबीस इंच की साइकिल

पिता की बढ़ती उम्र के साथ-साथ 
साइकिल बूढ़ी होती गई
और पिता का प्रेम बढ़ता गया 
सचमुच इतना प्रेम 
कि पैदल होने के बाद 
साइकिल पिता के साथ
पैदल हो जाती है आज भी 
जी हाँ, 
मैंने पिता की साइकिल को 
पैदल चलते देखा है। 

मान्यता ऐसी है कि 
साइकिल के साथ पिता का पैदल होना 
अथवा पिता के साथ साइकिल का पैदल होना 
अब फलाने के पिताजी की पहचान है।

यक़ीनन पिता का प्रेम 
जितना अपने बच्चों से है 
उतना ही 
चौबीस साल पुरानी 
साइकिल से भी।

सचमुच 
साइकिल चलाते हुए पिताजी 
हमेशा जवान दिखते हैं। 
पिता की साइकिल को 
गाँव का हर आदमी 
पहचानता है। 

साइकिल में करियर और स्टैंड के न होने के साथ-साथ 
घंटी का ख़राब होना
पिता की साइकिल होना है। 

महज़ कहने भर के लिए 
पिताजी साइकिल से चलते हैं 
और साइकिल पिताजी से... 

सच तो यह है कि 
पिताजी और साइकिल 
दोनों पैदल चलते हैं। 

सचमुच तुम्हारी साइकिल का पुराना ताला 
उसमें लिपटी हुई जर्जर सीकड़ 
जब हनुमान मंदिर के छड़ों में नाहक जकड़ दी जाती है 
तो बच्चे सवाल करते हैं 
बाबा! बताओ इतनी पुरानी साइकिल को कोई पूछेगा क्या? 

यक़ीनन 
पिताजी को पुराने सामानों को सहेजकर रखने की पुरानी आदत है 
पिताजी सहेजकर रखते हैं कबाड़े को भी 
अपनी पुरानी मान्यताओं के साथ 
इसीलिए पिता की नज़र में 
उनकी साइकिल जवान है, आज भी। 

दुनिया में ऐसे पिता बहुत कम होते हैं 
जिनकी साइकिल को 
पिता के साथ-साथ 
चलाती होगी उनकी तीसरी पुस्त भी 
या चलती होगी किसी पिता की तीसरी पुस्त 
चौबीस इंच की साइकिल से 
आज भी। 

- प्रदीप त्रिपाठी।
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संपादकीय चयन 

रविवार, 28 जनवरी 2024

एक मंद मुस्कान बहुत है

सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

जीवन की इस निविड़-निशा में, जाने कितने पल आते हैं,
मूक व्यथा के बादल आँसू बन, आँखों से ढल जाते हैं।
ऐसे पल अंतस से उपजा हुआ एक ही गान, बहुत है।
सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

पीड़ाओं का साम्राज्य जब नभ-सा विस्तृत हो जाता है,
मर्माहत मन गहन व्यथा के शोक-सिंधु में खो जाता है।
ऐसे अंधकार में उपजी एक किरन अम्लान, बहुत है।
सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

खिन्न हृदय की विकल वेदना में हम गीत कहाँ से गाते,
होंठ काँप कर रह जाते हैं बोल नहीं अधरों तक आते।
वीणा के टूटे तारों से निकल सके जो तान, बहुत है।
सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

औरों की पीड़ा से कितने नयन आजकल नम होते हैं,
सच्चा स्नेह दिखाने वाले लोग बहुत ही कम होते हैं।
अगर एक भी जीवन भर में मिल जाए इनसान, बहुत है।
सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

जीवन में सब कुछ मन चाहा मिल जाए यह नहीं जरूरी,
कहते-कहते करुण कहानी रह जाती हर बार अधूरी।
ऐसे में जितने भी पूरे हो जाएँ अरमान, बहुत है।
सदियों से सूने अधरों पर एक मंद मुस्कान, बहुत है!

शंभुनाथ तिवारी।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 26 जनवरी 2024

चक्रव्यूह

युद्ध की प्रतिध्वनि जगाकर 
जो हज़ारों बार दुहराई गई, 
रक्त की विरुदावली कुछ और रंगकर 
लोरियों के संग जो गाई गई
उसी इतिहास की स्मृति, 
उसी संसार में लौटे हुए, 
ओ योद्धा, तुम कौन हो? 

मैं नवागत वह अजित अभिमन्यु हूँ 
प्रारब्ध जिसका गर्भ ही से हो चुका निश्चित
अपरिचित ज़िंदगी के व्यूह में फेंका हुआ उन्माद
बाँधी पंक्तियों को तोड़ 
क्रमशः लक्ष्य तक बढ़ता हुआ जयनाद 
मेरे हाथ में टूटा हुआ पहिया
पिघलती आग-सी संध्या
बदन पर एक फूटा कवच
सारी देह क्षत-विक्षत
धरती-ख़ून में ज्यों सनी लथपथ लाश
सिर पर गिद्ध-सा मँडरा रहा आकाश

मैं बलिदान इस संघर्ष में 
कटु व्यंग्य हूँ उस तर्क पर 
जो ज़िंदगी के नाम पर हारा गया
आहूत हर युद्धाग्नि में 
वह जीव हूँ निष्पाप 
जिसको पूज कर मारा गया
वह शीश जिसका रक्त सदियों तक बहा
वह दर्द जिसको बेगुनाहों ने सहा। 

यह महासंग्राम
युग-युग से चला आता महाभारत
हज़ारों युद्ध, उपदेशों, उपाख्यानों, कथाओं में
छिपा वह पृष्ठ मेरा है 
जहाँ सदियों पुराना व्यूह, जो दुर्भद्य था, टूटा
जहाँ अभिमन्यु कोई भयों के आतंक से छूटा 
जहाँ उसने विजय के चंद घातक पलों में जाना 
कि छल के लिए उद्यत व्यूह-रक्षक वीर-कायर हैं, 
जिन्होंने पक्ष अपनी सत्य से ज़्यादा बड़ा माना
जहाँ तक पहुँच उसने मृत्यु के निष्पक्ष, समयातीत घेरे में 
घिरे अस्तित्व का हर पक्ष पहिचाना।

- कुँवर नारायण।
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 25 जनवरी 2024

शुरुआत होती है यहीं से

निश्चय ही रोटी का सच 
बहुत बड़ा है 
पर आदमी होने का सच 
उससे भी बड़ा है 
मेरी कविता को तलाश है 
उस सड़क की 
जो रोटी से होकर 
आदमी तक जाती है 

पर कोई है -
उसकी आँखों पर 
पट्टी बाँध देता है 
वह जो भी पगडंडी पकड़ती है 
थोड़ी दूर जाकर 
अंधी गली में तब्दील हो जाती है 
जानती हूँ 
वे हाथ किसके हैं 
और शुरुआत होती है यहीं से 
जंग की।

- निर्मला गर्ग।
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 24 जनवरी 2024

तुम्हारे साथ रहकर

तुम्हारे साथ रहकर 
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है 
कि दिशाएँ पास आ गई हैं, 
हर रास्ता छोटा हो गया है, 
दुनिया सिमटकर 
एक आँगन-सी बन गई है 
जो खचाखच भरा है, 
कहीं भी एकांत नहीं 
न बाहर, न भीतर। 

हर चीज़ का आकार घट गया है
पेड़ इतने छोटे हो गए हैं 
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख 
आशीष दे सकता हूँ
आकाश छाती से टकराता है
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ। 

तुम्हारे साथ रहकर 
अक्सर मुझे महसूस हुआ है 
कि हर बात का एक मतलब होता है
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी
हवा का खिड़की से आने का
और धूप का दीवार पर 
चढ़कर चले जाने का। 

तुम्हारे साथ रहकर 
अक्सर मुझे लगा है 
कि हम असमर्थताओं से नहीं 
संभावनाओं से घिरे हैं
हर दीवार में द्वार बन सकता है 
और हर द्वार से पूरा का पूरा 
पहाड़ गुज़र सकता है। 

शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है
भुजाएँ अगर छोटी हैं
तो सागर भी सिमटा हुआ है
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है, 
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है 
वह नियति की नहीं मेरी है।

- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 23 जनवरी 2024

अभिधा में नहीं

जो कुछ कहना हो उसे
ख़ुद से भी चाहे
व्यंजना में कहती है वह
कभी लक्षणा में
अभिधा में नहीं लेकिन कभी

कोई अदालत है प्रेम जैसे
क़बूल अभिधा में जो
कर लिया
सज़ा से बचेगी कैसे!

- नंदकिशोर आचार्य।
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 20 जनवरी 2024

डिब्बी में चाँद

बचपन में माँ को 
इक छोटी सी डिब्बी में
ढेर सारे चाँद रखते देखा
अपने माथे पर सजाते देखा
रंग-बिरंगे
गोल
जो कभी आधे नहीं होते थे
छुपते भी नहीं
अब बड़ी हूँ
तो चाँद कभी दीखता है पूरा
कभी आधा
कभी छुप जाता है
रंग भी उड़ा-सा दीखता है

वह डिब्बी जो माँ के पास छूट गई
शायद,
उसमें अब भी कुछ चाँद पड़े होंगे।

नेहल शाह।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 19 जनवरी 2024

पाँच बज गए

पाँच बज गए

दफ़्तरों के पिंजरों से
हज़ारों परिंदे (जो मुर्दा थे)
सहसा जीवित हो गए
पाँच बज गए

आकुल मन
श्लथ तन

भावनाओं के समु्द्र
शब्दों के पक्षी
गीतों के पंख खोल
उड़ गए
उड़ गए
पाँच बज गए।

- रवींद्रनाथ त्यागी।
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 18 जनवरी 2024

नई किताबें

नई-नई किताबें पहले तो
दूर से देखती हैं
मुझे शरमाती हुईं

फिर संकोच छोड़कर
बैठ जाती हैं फैलकर
मेरे सामने मेरी पढ़ने की मेज़ पर

उनसे पहला परिचय... स्पर्श
हाथ मिलाने जैसी रोमांचक
एक शुरुआत...

धीरे-धीरे खुलती हैं वे
पृष्ठ दर पृष्ठ
घनिष्ठतर निकटता
कुछ से मित्रता
कुछ से गहरी मित्रता
कुछ अनायास ही छू लेतीं मेरे मन को
कुछ मेरे चिंतन की अंग बन जातीं
कुछ पूरे परिवार की पसंद
ज़्यादातर ऐसी जिनसे कुछ न कुछ मिल जाता

फिर भी
अपने लिए हमेशा खोजता रहता हूँ
किताबों की इतनी बड़ी दुनिया में
एक जीवन-संगिनी
थोड़ी अल्हड़-चुलबुली-सुंदर
आत्मीय किताब
जिसके सामने मैं भी खुल सकूँ
एक किताब की तरह पन्ना-पन्ना
और वह मुझे भी
प्यार से मन लगा कर पढ़े...

 - कुँवर नारायण।
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 17 जनवरी 2024

चढ़ती स्त्री

बच्चा गोद में लिए 
चलती बस में 
चढ़ती स्त्री 

और मुझमें कुछ दूर तक घिसटता जाता हुआ।

- रघुवीर सहाय।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 16 जनवरी 2024

अच्छे बच्चे

कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और ग़ुब्बारे नहीं माँगते
मिठाई नहीं माँगते ज़िद नहीं करते
और मचलते तो हैं ही नहीं

बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटों का भी कहना मानते हैं
इतने अच्छे होते हैं

इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही
उन्हें ले आते हैं घर
अक्सर
तीस रुपए महीने और खाने पर।

- नरेश सक्सेना।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 15 जनवरी 2024

किताब पढ़कर रोना

रोया हूँ मैं भी किताब पढ़कर के
पर अब याद नहीं कि कौन-सी 
शायद वह कोई वृत्तांत था 
पात्र जिसके अनेक 
बनते थे 
चारों तरफ़ से मँडराते हुए आते थे
पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं 
क्षण-भर में सहसा पहचाना 
यह पढ़ता कुछ और हूँ 
रोता कुछ और हूँ 
दोनों जुड़ गए हैं पढ़ना किताब का 
और रोना मेरे व्यक्ति का 
लेकिन मैंने जो पढ़ा था 
उसे नहीं रोया था 
पढ़ने ने तो मुझमें रोने का बल दिया 
दुख मैंने पाया था बाहर किताब के जीवन से 
पढ़ता जाता और रोता जाता था मैं 
जो पढ़ता हूँ उस पर मैं नहीं रोता हूँ 
बाहर किताब के जीवन से पाता हूँ 
रोने का कारण मैं 
पर किताब रोना संभव बनाती है।

- रघुवीर सहाय।
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संपादकीय चयन 

रविवार, 14 जनवरी 2024

है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो

है मुस्कुराता फूल कैसे तितलियों से पूछ लो 
जो बीतती काँटों पे है, वो टहनियों से पूछ लो

लिखती हैं क्या क़िस्से कलाई की खनकती चूड़ियाँ
जो सरहदों पर जाती हैं, उन चिट्ठियों से पूछ लो

होती है गहरी नींद क्या, क्या रस है अब के आम में
छुट्टी में घर आई हरी इन वर्दियों से पूछ लो

जो सुन सको क़िस्सा थके इस शहर के हर दर्द का
सड़कों पे फैली रात की ख़ामोशियों से पूछ लो

लौटा नहीं है काम से बेटा, तो माँ के हाल को
खिड़की से रह-रह झाँकती बेचैनियों से पूछ लो

गहरी गईं कितनी जड़ें तब जाके क़द ऊँचा हुआ
आकाश छूने की कहानी फुनगियों से पूछ लो

होती हैं इनकी बेटियाँ कैसे बड़ी रह कर परे
दिन-रात इन मुस्तैद सीमा-प्रहरियों से पूछ लो

लब सी लिए सबने यहाँ, सच जानना है गर तुम्‍हें
ख़ामोश आँखों में दबी चिंगारियों से पूछ लो

- गौतम राजऋषि।
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संपादकीय चयन 

शनिवार, 13 जनवरी 2024

रोने वाला ही गाता है

मधु-विष हैं दोनों जीवन में 
दोनों मिलते जीवन-क्रम में
पर विष पाने पर पहले मधु-मूल्य अरे, कुछ बढ़ जाता है।
रोने वाला ही गाता है! 

प्राणों की वर्त्तिका बनाकर 
ओढ़ तिमिर की काली चादर 
जलने वाला दीपक ही तो जग का तिमिर मिटा पाता है। 
रोने वाला ही गाता है! 

अरे! प्रकृति का यही नियम है 
रोदन के पीछे गायन है 
पहले रोया करता है नभ, पीछे इंद्रधनुष छाता है। 
रोने वाला ही गाता है!

- गोपालदास नीरज।
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संपादकीय चयन 

शुक्रवार, 12 जनवरी 2024

चोट

पथरीली चट्टान पर
हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्‍म देती है
जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है

आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है
ढल जाता है
मनचाहे आकार में
हथौड़े की चोट में।

एक तुम हो,
जिस पर किसी चोट का
असर नहीं होता।

- ओमप्रकाश वाल्‍मीकि।
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संपादकीय चयन 

गुरुवार, 11 जनवरी 2024

शब्द

शब्द 
अक्षरों से मिल बना 
बड़ा 
लेकिन 
एहसासों को 
कहने में काम न आ सका 
प्रेम भरी नज़र 
आत्मीय छुअन
और 
मौन 
शब्द से आगे निकले हैं 
संवाद की कड़ी में।

- अभिषेक जैन।

बुधवार, 10 जनवरी 2024

ढीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिए

ढ़ीठ सूरज बादलों को मुँह चिढ़ाने के लिए 
चल पड़ा है, देख, बारिश में नहाने के लिए 

कुछ सहमती, कुछ झिझकती, गुनगुनाती पौ फटी
सोये जग को भैरवी की धुन सुनाने के लिए 

घोंसले में अपने गौरेया है बैठी सोचती
जाए वो किस बाग़ में अमरूद खाने के लिए 

पर्वतों पर बर्फ़ के फाहे ठिठुरने जब लगे
चुपके-से घाटी में फिसले खिलखिलाने के लिए 

बेहया-सी दोपहर ठिठकी हुई है अब तलक
और ज़िद्दी शाम है बेचैन आने के लिए 

नकचढ़ी इक दूब दिन भर धूप में ऐंठी रही
रात उतरी शबनमी उसको रिझाने के लिए 

चाँद को टेढ़ा किए मुँह देखकर तारे सभी
आ गये ठुड्ढ़ी उठाए टिमटिमाने के लिए

- गौतम राजऋषि।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 8 जनवरी 2024

आ रही रवि की सवारी

नव किरण का रथ सजा है
कलि कुसुम से पथ सजा है
बादलों से अनुचरों ने
स्वर्ण की पोशाक धारी
आ रही रवि की सवारी

विहग, बंदी और चारण
गा रही है कीर्ति गायन
छोड़कर मैदान भागी
तारकों की फ़ौज सारी
आ रही रवि की सवारी

चाहता उछलूँ विजय कह
पर ठिठकता देखकर यह
रात का राजा खड़ा है
राह में बनकर भिखारी
आ रही रवि की सवारी 

- हरिवंशराय बच्चन।

रविवार, 7 जनवरी 2024

जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है

जो जीवन की धूल चाटकर बड़ा हुआ है 
तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है
जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है 
जो रवि के रथ का घोड़ा है 
वह जन मारे नहीं मरेगा 
नहीं मरेगा 

जो जीवन की आग जलाकर आग बना है 
फ़ौलादी पंजे फैलाए नाग बना है
जिसने शोषण को तोड़ा शासन मोड़ा है 
जो युग के रथ का घोड़ा है 
वह जन मारे नहीं मरेगा 
नहीं मरेगा

- केदारनाथ अग्रवाल।

शनिवार, 6 जनवरी 2024

प्रतीक्षा

प्रतीक्षा धूप में चिड़ियों का स्पंदन है,
हरी पत्तियों का नीरव उजला गान है,

प्रतीक्षा
दरवाज़े पर दस्तक के अनसुने रहने पर
छोड़े गए शब्द हैं -

- अशोक वाजपेयी।
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शुक्रवार, 5 जनवरी 2024

मेरी भी आभा है इसमें

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है 
यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है 
मेरी भी आभा है इसमें 
भीनी-भीनी ख़ुशबूवाले 
रंग-बिरंगे 
यह जो इतने फूल खिले हैं 
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था 
कल इनको मेरे सपनों ने सहलाया था 
पकी सुनहली फ़सलों से जो 
अबकी यह खलिहान भर गया 
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदें इसमें मुस्काती हैं 
नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है 
यह विशाल भूखंड आज जो चमक रहा है 
मेरी भी आभा है इसमें

- नागार्जुन।
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गुरुवार, 4 जनवरी 2024

प्रभात

रात अपने ख़ेमे को उखाड़कर चली गई, 
पानी के बँधे हुए जूड़े में सरोज खिले 
और नई रौशनी जवान हुई।

- केदारनाथ अग्रवाल।
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संपादकीय चयन 

बुधवार, 3 जनवरी 2024

दीवारें

अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूँ

कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था

कम दीवारों से
बड़ा फ़र्क पड़ता है

दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर।

- कुँवर नारायण।
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संपादकीय चयन 

मंगलवार, 2 जनवरी 2024

गए साल की

गए साल की
ठिठकी ठिठकी ठिठुरन
नए साल के
नए सूर्य ने तोड़ी।

देश-काल पर,
धूप-चढ़ गई,
हवा गरम हो फैली,
पौरुष के पेड़ों के पत्ते
चेतन चमके।

दर्पण-देही
दसों दिशाएँ
रंग-रूप की
दुनिया बिंबित करती,
मानव-मन में
ज्योति-तरंगे उठतीं।

- केदारनाथ अग्रवाल।
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संपादकीय चयन 

सोमवार, 1 जनवरी 2024

नया साल

चमक रहे हैं
हमारे स्वागत में
दिन के नए पन्ने

इन्हीं में लिखनी है हमें
अपनी कहानियाँ
देना है अपना बयान

कि इन्हें बचना है
आग की लपटों से
ख़ून के धब्बों से

- निर्मल आनंद।